यह खूब ही सत्य बात है कि मन में जभी दूसरे के दोष देखने की प्रवृति आती है तभी वे दोष तुम्हारे अन्दर आकर घर बना लेते हैं। तभी बिना काल विलम्ब किये उस पाप प्रवृति को तोड़-मरोड़ एवं झाड़-बुहार कर साफ़ कर देने में निस्तार है, नहीं तो सब नष्ट हो जायेगा।
तुम्हारी नजर यदि दूसरे का केवल 'कु' - ही देखे तो तुम कभी भी किसी को प्यार नहीं कर सकते। जो सत् नहीं देख सकता वह कभी भी सत् नहीं होता।
तुम्हारा मन जितना निर्मल होगा, तुम्हारी आँखें उतनी ही निर्मल होगी और जगत् तुम्हारे सम्मुख निर्मल होकर प्रकट होगा।
तुम चाहे जो भी क्यों न देखो, अन्तर सहित सबसे पहले उसकी अच्छाई देखने की चेष्टा करो और इस अभ्यास को तुम मज्जागत कर लो।
तुम्हारी भाषा यदि कुत्सा-कलंक-जडित ही हो, दूसरे की सुख्याति नहीं कर सके, तो वह जिसमें किसी के प्रति कोई भी मतामत प्रकाश न करे। मन ही मन तुम अपने स्वभाव से घृणा करने की चेष्टा करो एवं भविष्य में कुत्सा-नरक त्यागने के लिए दृढप्रतिज्ञ बनो।
परनिंदा करना ही है दूसरे के दोष को बटोर कर स्वयं कलंकित होना; और दूसरे की सुख्याति करने के अभ्यास से अपना स्वभाव अज्ञातभाव से अच्छा हो जाता है।
लेकिन किसी स्वार्थ-बुद्धि से दूसरे की सुख्याति नहीं करनी चाहिये। वह तो खुशामद है। ऐसे क्षेत्र में मन-मुख प्रायः एक नहीं रहते। यह बहुत ही ख़राब है, और इससे अपने स्वाधीन मत-प्रकाश की शक्ति खो जाती है।
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