Wednesday, 24 September 2008

सत्यानुसरण 7

जिस पर सब कुछ आधारित है वही है धर्म, और वे ही हैं परम पुरुष।
धर्म कभी अनेक नहीं होता, धर्म एक है और उसका कोई प्रकार नहीं।
मत अनेक हो सकते हैं, यहाँ तक कि जितने मनुष्य हैं उतने मत हो सकते हैं, किंतु इससे धर्म अनेक नहीं हो सकता।
मेरे विचार से हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म इत्यादि बातें भूल हैं बल्कि वे सभी मत हैं।
किसी भी मत के साथ किसी मत का प्रकृत रूप से कोई विरोध नहीं, भाव की विभिन्नता, प्रकार-भेद हैं--एक का ही नाना प्रकार से एक ही तरह का अनुभव है।
सभी मत ही हैं साधना विस्तार के लिये, पर वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं, और जितने विस्तार में जो होता है वही है अनुभूति, ज्ञान। इसीलिये धर्म है अनुभूति पर।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

No comments: