जो अपना प्रचार करता है वह आत्म-प्रवंचना करता है, और, जो सत्य या आदर्श में मुग्ध होकर उसके विषय में कहता है, वही किंतु ठीक-ठीक आत्म-प्रचार करता है !
प्रकृत सत्य-प्रचारक ही जगत् के प्रकृत मंगलाकांक्षी हैं। उनकी दया से कितने जीवों का जो आत्मोन्नयन होता है उसकी इयत्ता नहीं।
तुम सत्य या आदर्श में मुग्ध रहो, हृदय में भाव स्वयं उबल पड़ेगा और उसी भाव में अनुप्राणित होकर कितने लोगों की जो उन्नति होगी उसकी कोई सीमा नहीं।
गुरु होना मत चाहो; गुरुमुख होने की चेष्टा करो। गुरु ही होते हैं जीव के प्रकृत उद्धारकर्ता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण
No comments:
Post a Comment