Thursday, 27 November 2008

सत्यानुसरण 56

जैसा करने से जिसकी प्राप्ति होती है, वैसा नहीं करते हो तो उसके लिये दुःखित मत होओ।
करने के पहले दुःख करना अप्राप्ति को ही बुलाता है।
पाने के लिये -- वह जो भी हो, सुनना होगा कि वह कैसे पाया जाता है--और ठीक-ठीक उसे करना होगा--बिना किये पाने के लिये उदग्रीव होने से बढकर बेवकूफी और क्या है?
निश्चय जानो--करना ही है पाने की जननी।
करनी जब चाह का अनुसरण करती है--तभी उसकी कृतार्थता सम्मुख उपस्थित होती है।
मनुष्य का आकांक्षित मंगल उसके अभ्यस्त संस्कार के अंतराल में रहता है, और मंगलदाता तभी दण्डित होते हैं जभी प्रदत्त मंगल का अभ्यस्त संस्कार के साथ विरोध उपस्थित होता है--और इसीलिए प्रेरित-पुरुष स्वदेश में कुत्सामंडित होते हैं।
प्रकृति उन्हें धिक्कारती है, जो की प्रत्यक्ष की अवज्ञा या अग्राह्य कर परोक्ष का आलिंगन करते हैं।
और, परोक्ष जिनके प्रत्यक्ष को रंजित वा लांछित करता है वे ही धोखे के अधिकारी होते हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

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