देह रहते अहंकार नहीं जाता, और, भाव रहते अहं नहीं जाता। तब अपने अहं को आदर्श पर छोड़ कर passive होकर जो जितना रह सकता है वह उतना है निरहंकार एवं वह उतना उदार है।
अपने पर गर्व जितना न किया जाय उतना ही मंगल, और आदर्श पर गर्व जितना किया जाय उतना ही मंगल।
परमपिता ही तुम्हारे अहंकार के विषय हों, और तुम उनमें ही आनंद उपभोग करो !
असत् आदर्श में अपना अहंकार न्यस्त न करो; अन्यथा तुम्हारा अहंकार और भी कठिन होगा।
आदर्श जितना उच्च या उदार हो उतना ही अच्छा है, कारण, जितनी उच्चता या उदारता का आश्रय लोगे, तुम भी उतना ही उच्च या उदार बनोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण
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