अनुभव करो, किंतु अभिभूत मत हो पडो, अन्यथा चल नहीं पाओगे। यदि अभिभूत होना है तो इश्वरप्रेम में होओ।
यथाशक्ति सेवा करो, किंतु सावधान, सेवा लेने की जिसमें इच्छा न जगे।
अनुरोध करो, किंतु हुक्म देने मत जाओ।
कभी भी निंदा न करो, किंतु असत्य को प्रश्रय मत दो।
धीर बनो, किंतु आलसी, दीर्घसूत्री मत बनो।
क्षिप्र बनो, किंतु अधीर होकर विरक्ति को बुलाकर सब कुछ नष्ट मत कर दो।
वीर बनो, किंतु हिंसक होकर बाघ-भालू जैसा न बन जाओ।
स्थिरप्रतिज्ञ होओ, जिद्दी मत बनो।
तुम स्वयं सहन करो, किंतु जो नहीं कर सकता है उसकी सहायता करो, घृणा मत करो, सहानुभूति दिखलाओ, साहस दो।
स्वयं अपनी प्रशंसा करने में कृपण बनो, किंतु दूसरे के समय दाता बनो।
जिस पर क्रुद्ध हुए हो, पहले उसे आलिंगन करो, अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रण दो, डाली भेजो एवं हृदय खोलकर जब तक बातचीत नहीं करते तब तक अनुताप सहित उसके मंगल के लिए परमपिता से प्रार्थना करो; क्योंकि विद्वेष आते ही क्रमश: तुम संकीर्ण हो जाओगे और संकीर्णता ही पाप है।
यदि कोई तुम पर कभी भी अन्याय करे, और नितांत ही उसका प्रतिशोध लेना हो तो तुम उसके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वह अनुपप्त हो; ऐसा प्रतिशोध और नहीं है- अनुताप है तुषानल। उसमें दोनों का मंगल है।
बंधुत्व खारिज न करो अन्यथा सजा में संवेदना एवं सांत्वना नहीं पाओगे।
तुम्हारा बन्धु अगर असत भी हो, उसे न त्यागो वरन प्रयोजन होने पर उसका संग बंद करो, किंतु अन्तर में श्रद्धा रखकर विपत्ति-आपत्ति में कायमनोवाक्य से सहायता करो और अनुतप्त होने पर आलिंगन करो।
तुम्हारा बन्धु अगर कुपथ पर जाता है और तुम यदि उसे लौटाने की चेष्टा न करो या त्याग करो तो उसकी सजा तुम्हें भी नहीं छोड़ेगी।
बन्धु की कुत्सा न रटो या किसी भी तरह दूसरे के निकट निंदा न करो; किंतु उसका अर्थ यह नहीं कि उसके निकट उसकी किसी बुराई को प्रश्रय दो।
बन्धु के निकट उद्धत न होओ किंतु प्रेम के साथ अभिमान से उस पर शासन करो।
बन्धु से कुछ प्रत्याशा न रखो किंतु जो पाओ प्रेम सहित ग्रहण करो। कुछ दो तो पाने की आशा न रखो, किंतु कुछ पाने पर देने की चेष्टा करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण