Tuesday, 30 September 2008

सत्यानुसरण 14

आगे बढ़ो, किंतु माप कर देखने न जाओ कि कितनी दूर बढ़े हो; ऐसा करने से पुनः पीछे रह जाओगे।
अनुभव करो, किंतु अभिभूत मत हो पडो, अन्यथा चल नहीं पाओगे। यदि अभिभूत होना है तो इश्वरप्रेम में होओ।
यथाशक्ति सेवा करो, किंतु सावधान, सेवा लेने की जिसमें इच्छा न जगे।
अनुरोध करो, किंतु हुक्म देने मत जाओ।
कभी भी निंदा न करो, किंतु असत्य को प्रश्रय मत दो।
धीर बनो, किंतु आलसी, दीर्घसूत्री मत बनो।
क्षिप्र बनो, किंतु अधीर होकर विरक्ति को बुलाकर सब कुछ नष्ट मत कर दो।
वीर बनो, किंतु हिंसक होकर बाघ-भालू जैसा न बन जाओ।
स्थिरप्रतिज्ञ होओ, जिद्दी मत बनो।
तुम स्वयं सहन करो, किंतु जो नहीं कर सकता है उसकी सहायता करो, घृणा मत करो, सहानुभूति दिखलाओ, साहस दो।
स्वयं अपनी प्रशंसा करने में कृपण बनो, किंतु दूसरे के समय दाता बनो।
जिस पर क्रुद्ध हुए हो, पहले उसे आलिंगन करो, अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रण दो, डाली भेजो एवं हृदय खोलकर जब तक बातचीत नहीं करते तब तक अनुताप सहित उसके मंगल के लिए परमपिता से प्रार्थना करो; क्योंकि विद्वेष आते ही क्रमश: तुम संकीर्ण हो जाओगे और संकीर्णता ही पाप है।
यदि कोई तुम पर कभी भी अन्याय करे, और नितांत ही उसका प्रतिशोध लेना हो तो तुम उसके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वह अनुपप्त हो; ऐसा प्रतिशोध और नहीं है- अनुताप है तुषानल। उसमें दोनों का मंगल है।
बंधुत्व खारिज न करो अन्यथा सजा में संवेदना एवं सांत्वना नहीं पाओगे।
तुम्हारा बन्धु अगर असत भी हो, उसे न त्यागो वरन प्रयोजन होने पर उसका संग बंद करो, किंतु अन्तर में श्रद्धा रखकर विपत्ति-आपत्ति में कायमनोवाक्य से सहायता करो और अनुतप्त होने पर आलिंगन करो।
तुम्हारा बन्धु अगर कुपथ पर जाता है और तुम यदि उसे लौटाने की चेष्टा न करो या त्याग करो तो उसकी सजा तुम्हें भी नहीं छोड़ेगी।
बन्धु की कुत्सा न रटो या किसी भी तरह दूसरे के निकट निंदा न करो; किंतु उसका अर्थ यह नहीं कि उसके निकट उसकी किसी बुराई को प्रश्रय दो।
बन्धु के निकट उद्धत न होओ किंतु प्रेम के साथ अभिमान से उस पर शासन करो।
बन्धु से कुछ प्रत्याशा न रखो किंतु जो पाओ प्रेम सहित ग्रहण करो। कुछ दो तो पाने की आशा न रखो, किंतु कुछ पाने पर देने की चेष्टा करो।

--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 28 September 2008

सत्यानुसरण 13

काम करते जाओ, किंतु आबद्ध न होना। यदि विषय के परिवर्तन से तुम्हारे हृदय में परिवर्तन आ रहा है समझ सको और वह परिवर्तन तुम्हारे लिए वांछनीय नहीं है, तो ठीक जानो तुम आबद्ध हुए हो।
किसी प्रकार के संस्कार में ही आबद्ध मत रहो, एकमात्र परमपुरुष के संस्कार को छोड़कर और सभी बंधन हैं।
तुम्हारे दर्शन की, ज्ञान की दूरी जितनी है, अदृष्ट (भाग्य) ठीक उसके ही आगे है; देख नहीं पाते हो, जान नहीं पाते हो, इसलिए अदृष्ट है।
अपने शैतान अहंकारी अहमक "मैं" को निकाल बाहर करो; परमपिता की इच्छा पर तुम चलो, अदृष्ट कुछ भी नहीं कर सकेगा। परमपिता की इच्छा ही है अदृष्ट।
अपनी सभी अवस्थाओं में उनकी मंगल-इच्छा समझने की चेष्टा करो। देखना, कातर नहीं होगे, वरण हृदय में सबलता आयेगी, दुःख में भी आनंद पाओगे।
काम करते जाओ, अदृष्ट सोचकर हताश मत हो जाओ; आलसी मत बनो, जैसा काम करोगे तुम्हारे अदृष्ट वैसे ही बनकर दृष्ट होंगे। सत् कर्मी का कभी भी अकल्याण नहीं होता। चाहे एक दिन पहले या पीछे।
परमपिता की ओर देखकर काम करते जाओ। उनकी इच्छा ही है अदृष्ट; उसे छोड़कर और एक अदृष्ट-फदृष्ट बनाकर बेवकूफ बनकर बैठे मत रहो। बहुत से लोग अदृष्ट में नहीं हैं, यह सोचकर पतवार छोड़कर बैठे रहते हैं, अपिच निर्भरता भी नहीं, अंत में सारा जीवन दुर्दशा में काटते हैं, यह सब बेवकूफी है।
तुम्हारा 'मैंपन' जाते ही अदृष्ट ख़त्म हुआ, दर्शन भी नहीं, अदृष्ट भी नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 27 September 2008

सत्यानुसरण 12

तुम दूसरे से जैसा पाने की इच्छा रखते हो, दूसरे को वैसे ही देने की चेष्टा करो--ऐसा समझ कर चलना ही यथेष्ट है--स्वयं ही सभी तुम्हें पसंद करेंगे, प्यार करेंगे।
स्वयं ठीक रहकर सभी को सत् भाव से खुश करने की चेष्टा करो, देखोगे, सभी तुम्हें खुश करने की चेष्टा कर रहे हैं। सावधान, निजत्व खोकर किसी को खुश करने नहीं जाओ अन्यथा तुम्हारी दुर्गति की सीमा नहीं रहेगी।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 11

अपना दोष जानकर भी यदि तुम उसे त्याग नहीं सकते तो किसी भी तरह उसका समर्थन कर दूसरे का सर्वनाश न करो।
तुम यदि सत् बनो, तुम्हारे देखा-देखी हजार-हजार लोग सत् हो जायेंगे। और यदि असत् बनो, तुम्हारी दुर्दशा में संवेदना प्रकाश करने वाला कोई भी नहीं रहेगा; कारण, असत् होकर तुमने अपने चतुर्दिक को असत् बना डाला है।
तुम ठीक-ठीक समझ लो कि तुम अपने, अपने परिवार के, दश एवं देश के वर्त्तमान और भविष्य के लिये उत्तरदायी हो।
नाम-यश की आशा में कोई काम करने जाना ठीक नहीं। किंतु कोई भी काम निःस्वार्थ भाव से करने पर ही कार्य के अनुरूप नाम-यश तुम्हारी सेवा करेंगे ही।
अपने लिये जो भी किया जाय वही है निष्काम। किसी के लिये कुछ नहीं चाहने को ही निष्काम कहते हैं-केवल ऐसी बात नहीं है।
दे दो, अपने लिये कुछ मत चाहो, देखोगे, सभी तुम्हारे अपने होते जा रहे हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 25 September 2008

सत्यानुसरण 10

सत्यदर्शी का आश्रय लेकर स्वाधीन भाव से सोचो एवं विनय सहित स्वाधीन मत प्रकाश करो। पुस्तक पढ़कर पुस्तक मत बन जाओ, उसके essence (सार) को मज्जागत करने की चेष्टा करो। Pull the husk to draw the seed (बीज प्राप्त करने के लिए भूसी को अलग करो )।
ऊपर-ऊपर देखकर ही किसी चीज को न छोड़ो या किसी प्रकार का मत प्रकाश न करो। किसी चीज का शेष देखे बिना उसके सम्बन्ध में ज्ञान ही नहीं होता है और बिना जाने तुम उसके विषय में क्या मत प्रकाश करोगे ?
जो कुछ क्यों न करो, उसके अन्दर सत्य देखने की चेष्टा करो। सत्य देखने का अर्थ ही है उसके आदि-अंत को जानना और वही है ज्ञान।
जो तुम नहीं जानते हो, ऐसे विषय में लोगों को उपदेश देने मत जाओ।

Wednesday, 24 September 2008

सत्यानुसरण 9

यदि परीक्षक बनकर अहंकार सहित सदगुरु अथवा साधुगुरु की परीक्षा करने जाओगे तो तुम उनमें अपने को ही देखोगे, ठगे जाओगे।
सदगुरु की परीक्षा करने के लिये उनके निकट संकीर्ण-संस्कारविहीन हो प्रेम का हृदय लेकर, दीन एवं जहाँ तक सम्भव हो निरहंकार होकर जाने से उनकी दया से कोई संतुष्ट हो सकता है।
उन्हें अहं की कसौटी पर कसा नहीं जाता, किंतु वे प्रकृत दीनतारूपी भेड़े के सींग पर खंड-विखंड हो जाते हैं।
हीरा जिस तरह कोयला इत्यादि गन्दी चीजों में रहता है, उत्तम रूप से परिष्कार किए बिना उसकी ज्योति नहीं निकलती, वे भी उसी प्रकार संसार में अति साधारण जीव की तरह रहते हैं, केवल प्रेम के प्रक्षालन से ही उनकी दीप्ति से जगत उद्भासित होता है। प्रेमी ही उन्हें धर सकता है। प्रेमी का संग करो, सत्संग करो, वे स्वयं प्रकट होंगे।
अहंकारी की परीक्षा अहंकारी ही कर सकता है। गलित-अहं को वह कैसे जान सकता है ? उसके लिए एक किंभूतकिमाकार (अदभूत) लगेगा-- जिस तरह बज्रमूर्ख के सामने महापण्डित।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 8

यदि मंगल चाहते हो तो ज्ञानाभिमान छोड़ो, सभी की बातें सुनो और वही करो जो तुम्हारे हृदय के विस्तार में सहायता करे !
ज्ञानाभिमान ज्ञान का जितना अन्तराय यानि बाधक है उतना रिपु नहीं।
यदि शिक्षा देना चाहते हो तो कभी भी शिक्षक बनना मत चाहो। मैं शिक्षक हूँ, यह अंहकार ही किसी को सीखने नहीं देता।
अहं को जितना दूर रखोगे तुम्हारे ज्ञान या दर्शन की दूरी उतनी ही विस्तृत होगी।
अहं जब गल जाता हैं, जीव तभी सर्वगुणसंपन्न निर्गुण हो जाता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 7

जिस पर सब कुछ आधारित है वही है धर्म, और वे ही हैं परम पुरुष।
धर्म कभी अनेक नहीं होता, धर्म एक है और उसका कोई प्रकार नहीं।
मत अनेक हो सकते हैं, यहाँ तक कि जितने मनुष्य हैं उतने मत हो सकते हैं, किंतु इससे धर्म अनेक नहीं हो सकता।
मेरे विचार से हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म इत्यादि बातें भूल हैं बल्कि वे सभी मत हैं।
किसी भी मत के साथ किसी मत का प्रकृत रूप से कोई विरोध नहीं, भाव की विभिन्नता, प्रकार-भेद हैं--एक का ही नाना प्रकार से एक ही तरह का अनुभव है।
सभी मत ही हैं साधना विस्तार के लिये, पर वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं, और जितने विस्तार में जो होता है वही है अनुभूति, ज्ञान। इसीलिये धर्म है अनुभूति पर।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 22 September 2008

सत्यानुसरण 6

यह खूब ही सत्य बात है कि मन में जभी दूसरे के दोष देखने की प्रवृति आती है तभी वे दोष तुम्हारे अन्दर आकर घर बना लेते हैं। तभी बिना काल विलम्ब किये उस पाप प्रवृति को तोड़-मरोड़ एवं झाड़-बुहार कर साफ़ कर देने में निस्तार है, नहीं तो सब नष्ट हो जायेगा।
तुम्हारी नजर यदि दूसरे का केवल 'कु' - ही देखे तो तुम कभी भी किसी को प्यार नहीं कर सकते। जो सत् नहीं देख सकता वह कभी भी सत् नहीं होता।
तुम्हारा मन जितना निर्मल होगा, तुम्हारी आँखें उतनी ही निर्मल होगी और जगत् तुम्हारे सम्मुख निर्मल होकर प्रकट होगा।
तुम चाहे जो भी क्यों न देखो, अन्तर सहित सबसे पहले उसकी अच्छाई देखने की चेष्टा करो और इस अभ्यास को तुम मज्जागत कर लो।
तुम्हारी भाषा यदि कुत्सा-कलंक-जडित ही हो, दूसरे की सुख्याति नहीं कर सके, तो वह जिसमें किसी के प्रति कोई भी मतामत प्रकाश न करे। मन ही मन तुम अपने स्वभाव से घृणा करने की चेष्टा करो एवं भविष्य में कुत्सा-नरक त्यागने के लिए दृढप्रतिज्ञ बनो।
परनिंदा करना ही है दूसरे के दोष को बटोर कर स्वयं कलंकित होना; और दूसरे की सुख्याति करने के अभ्यास से अपना स्वभाव अज्ञातभाव से अच्छा हो जाता है।
लेकिन किसी स्वार्थ-बुद्धि से दूसरे की सुख्याति नहीं करनी चाहिये। वह तो खुशामद है। ऐसे क्षेत्र में मन-मुख प्रायः एक नहीं रहते। यह बहुत ही ख़राब है, और इससे अपने स्वाधीन मत-प्रकाश की शक्ति खो जाती है।

Sunday, 21 September 2008

सत्यानुसरण 5

यदि साधना में उन्नति लाभ करना चाहते हो तो कपटता त्यागो।
कपट व्यक्ति दूसरे से सुख्याति की आशा में अपने आप से प्रवंचना करता है; अल्प विश्वास के कारण दूसरे के प्रकृत दान से भी प्रवंचित होता है।
तुम लाख गल्प करो, किंतु प्रकृत उन्नति नहीं होने पर तुम प्रकृत आनंद कभी भी लाभ नहीं कर सकते।
कपटाशय के मुख की बात के साथ अन्तर का भाव विकसित नहीं होता, इसी से आनंद की बात में भी मुख पर निरसता के चिह्न दृष्ट होते हैं; कारण, मुँह खोलने से होता ही क्या है, हृदय में भाव की स्फूर्ति नहीं होती।
अमृतमय जल कपटी के लिए तिक्त लवणमय होता है, तट पर जाकर भी उसकी तृष्णा निवारित नहीं होती।
सरल व्यक्ति उर्द्धदृष्टिसंपन्न चातक के समान होता है। कपटी निम्नदृष्टिसंपन्न गृद्ध के समान। छोटा होओ, किंतु लक्ष्य उच्च हो; बड़ा एवं उच्च होकर निम्नदृष्टिसंपन्न गृद्ध के समान होने से लाभ ही क्या है?
कपटी मत बनो, अपने को न ठगो और दूसरे को भी न ठगो।

Saturday, 20 September 2008

सत्यानुसरण ४

संकोच ही दुःख है और प्रसारण ही है सुख। जिससे हृदय में दुर्बलता आती है, भय आता है--उसमें ही आनंद की कमी है-- और वही है दुःख।
चाह की अप्राप्ति ही है दुःख! कुछ भी न चाहो, सभी अवस्थाओं में राजी रहो, दुःख तुम्हारा क्या करेगा ?
दुःख किसी का प्रकृतिगत नहीं, इच्छा करने से ही उसे भगा दिया जा सकता है।
परमपिता से प्रार्थना करो- 'तुम्हारी इच्छा ही है मंगल, मैं नहीं जानता, कैसे मेरा मंगल होगा। मेरे भीतर तुम्हारी इच्छा ही पूर्ण हो।' और, उसके लिए तुम राजी रहो-आनंद में रहोगे, दुःख तुम्हें स्पर्श न करेगा।
किसी के दुःख का कारण न बनो, कोई तुम्हारे दुःख का कारण न बनेगा।
दुःख भी एक प्रकार का भाव है, सुख भी एक प्रकार का भावहै। अभाव या चाह का भाव ही है दुःख। तुम दुनियाँ के लिए हजार करके भी दुःख को दूर नहीं कर सकते-जबतक तुम हृदय से उस अभाव के भाव को निकाल नहीं लेते। और धर्म ही उसे कर सकता है।

सत्यानुसरण ३

जगत में मनुष्य जो कुछ दुःख पाता है उनमें अधिकांश ही कामिनी-कांचन की आसक्ति से आते हैं, इन दोनों से जितनी दूर हटकर रहा जाय उतना ही मंगल।
भगवान श्रीश्रीरामकृष्णदेव ने सभी को विशेष कर कहा है, कामिनी-कांचन से दूर-दूर-बहुत दूर रहो।
कामिनी से काम हटा देने से ही ये माँ हो पड़ती हैं। विष अमृत हो जाता है। और माँ, माँ ही है, कामिनी नहीं।
माँ शब्द के अंत में 'गी' जोड़कर सोचने से ही सर्वनाश। सावधान ! माँ को मागी सोच न मरो।
प्रत्येक की माँ ही है जगज्जननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विभिन्न रूप, इस प्रकार सोचना चाहिए। मातृभाव हृदय में प्रतिष्ठित हुए बिना स्त्रियों को स्पर्श नहीं करना चाहिए--जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा; यहाँ तक की मुखदर्शन तक नहीं करना और भी अच्छा है।
मेरे काम-क्रोधादि नहीं गये, नहीं गये-- कहकर चिल्लाने से वे कभी नहीं जाते। ऐसा कर्म, ऐसी चिंता का अभ्यास कर लेना चाहिए जिसमें काम-क्रोधादि की गंध नहीं रहे- मन जिससे उन सबको भूल जाये।
मन में काम-क्रोधादि का भाव नहीं आने से वे कैसे प्रकाश पायेंगे ? उपाय है-- उच्चतर उदार भाव में निमज्जित रहना।
सृष्टितत्व, गणितविद्या, रसायनशास्त्र इत्यादि की आलोचना से काम-रिपु का दमन होता है।
कामिनी-कांचन सम्बन्धी जिस किसी प्रकार की आलोचना ही उनमें आसक्ति ला दे सकती है। उन सभी आलोचनाओं से जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा।

सत्यानुसरण २

अनुताप करो; किंतु स्मरण रखो जैसे पुनः अनुतप्त न होना पड़े !
जभी अपने कुकर्म के लिए तुम अनुतप्त होगे, तभी परमपिता तुम्हें क्षमा करेंगे और क्षमा होने पर ही समझोगे, तुम्हारे हृदय में पवित्र सांत्वना आ रही है और तभी तुम विनीत, शांत और आनंदित होगे ।
जो अनुतप्त होकर भी पुनः उसी प्रकार के दुष्कर्म में रत होता है, समझाना कि वह शीघ्र ही अत्यन्त दुर्गति में पतित होगा ।
सिर्फ़ मौखिक अनुताप तो अनुताप है ही नहीं, बल्कि वह अन्तर में अनुताप आने का और भी बाधक है। प्रकृत अनुताप आने पर उसके सभी लक्षण ही थोड़ा-बहुत प्रकाश पाते हैं।

सत्यानुसरण 1

सर्वप्रथम हमें दुर्बलता के विरुद्ध युद्ध करना होगा। साहसी बनना होगा, वीर बनना होगा। पाप की ज्वलंत प्रतिमूर्ति है वह दुर्बलता। भगाओ, जितना शीघ्र सम्भव हो, रक्तशोषणकारी अवसाद-उत्पादक Vampire को। स्मरण करो तुम साहसी हो, स्मरण करो तुम शक्ति के तनय हो, स्मरण करो तुम परमपिता की संतान हो। पहले साहसी बनो, अकपट बनो, तभी समझा जाएगा, धर्मराज्य में प्रवेश करने का तुम्हारा अधिकार हुआ है।
तनिक-सी दुर्बलता रहने पर भी तुम ठीक-ठीक अकपट नहीं हो सकोगे और जब तक तुम्हारे मन-मुख एक नहीं होते तब तक तुम्हारे अन्दर की मलिनता दूर नहीं होगी।
मन-मुख एक होने पर भीतर मलिनता नहीं जम सकती- गुप्त मैल भाषा के जरिये निकल पड़ते हैं। पाप उसके अन्दर जाकर घर नहीं बना सकता !
हट जाना दुर्बलता नहीं है बल्कि चेष्टा न करना ही है दुर्बलता । कुछ करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करने पर भी यदि तुम विफलमनोरथ होते हो तो क्षति नहीं ! तुम छोड़ो नहीं, वह अम्लान चेष्टा ही तुम्हें मुक्ति की ओर ले जायेगी । दुर्बल मन चिरकाल ही संदिग्ध रहता है-वह कभी भी निर्भर नहीं कर सकता । विश्वास खो बैठता है-इसलिए प्रायः रुग्न, कुटिल, इन्द्रियपरवश होता है । उसके लिए सारा जीवन ज्वालामय है । अंत में अशांति में सुख-दुःख डूब जाता है, - क्या सुख है, क्या दुःख, नहीं कह सकता; पूछे जाने पर कहता है, ‘अच्छा हूँ’, पर रहती है अशांति; अवसाद से जीवन क्षय होता रहता है । दुर्बल हृदय में प्रेम-भक्ति का स्थान नहीं। दूसरे की दुर्दशा देख, दूसरे की व्यथा देख, दूसरे की मृत्यु देख अपनी दुर्दशा, व्यथा या मृत्यु की आशंका कर भग्न हो पड़ना, निराश होना या रो कर आकुल होना- ये सभी दुर्बलताएं हैं । जो शक्तिमान हैं, वे चाहे जो भी करें, उनकी नजर रहती है निराकरण की ओर, - जिससे उन सभी अवस्थाओं में कोई विध्वस्त न हो, प्रेम के साथ उनके ही उपाय की चिंता करना -बुद्धदेव को जैसा हुआ था। वही है सबल हृदय का दृष्टान्त । तुम मत कहो कि तुम भीरु हो, मत कहो कि तुम कापुरुष हो, मत कहो कि तुम दुराशय हो ! पिता की और देखो, आवेग सहित बोलो- ‘हे पिता, मैं तुम्हारी संतान हूँ, मुझमें अब जड़ता नहीं, दुर्बलता नहीं, मैं अब कापुरुष नहीं, तुम्हें भूलकर मैं अब नरक की ओर नहीं दौडूंगा और तुम्हारी ज्योति की और पीठ कर ‘अन्धकार-अन्धकार’ कह चीत्कार नहीं करूँगा।’

Friday, 19 September 2008

सत्यानुसरण

"भारत की अवनति तभी से आरम्भ हुई जब से भारतवासियों के लिए अमूर्त भगवान असीम हो उठे -- ऋषियों को छोड़कर ऋषिवाद की उपासना आरम्भ हुई। भारत ! यदि भविष्यत्-कल्याण का आह्वान करना चाहते हो, तो सम्प्रदायगत विरोध को भूल कर जगत के पूर्व-पूर्व गुरुओं के प्रति श्रद्धासंपन्न होओ--और अपने मूर्त एवं जीवंत गुरु वा भगवान् में आसक्त होओ,--और उन्हें ही स्वीकार करो--जो उनसे प्रेम करते हैं। कारण, पूर्ववर्ती को अधिकार करके ही परवर्ती का आविर्भाव होता है !"
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र

सत्यानुसरण

"अर्थ, मान, यश, इत्यादि पाने की आशा में मुझे ठाकुर बनाकर भक्त मत बनो, सावधान होओ-- ठगे जाओगे; तुम्हारा ठाकुरत्व न जागने पर कोई तुम्हारा केन्द्र भी नहीं, ठाकुर भी नहीं-- धोखा देकर धोखे में पड़ोगे।"
--श्री श्री ठाकुर