Sunday, 21 September 2008

सत्यानुसरण 5

यदि साधना में उन्नति लाभ करना चाहते हो तो कपटता त्यागो।
कपट व्यक्ति दूसरे से सुख्याति की आशा में अपने आप से प्रवंचना करता है; अल्प विश्वास के कारण दूसरे के प्रकृत दान से भी प्रवंचित होता है।
तुम लाख गल्प करो, किंतु प्रकृत उन्नति नहीं होने पर तुम प्रकृत आनंद कभी भी लाभ नहीं कर सकते।
कपटाशय के मुख की बात के साथ अन्तर का भाव विकसित नहीं होता, इसी से आनंद की बात में भी मुख पर निरसता के चिह्न दृष्ट होते हैं; कारण, मुँह खोलने से होता ही क्या है, हृदय में भाव की स्फूर्ति नहीं होती।
अमृतमय जल कपटी के लिए तिक्त लवणमय होता है, तट पर जाकर भी उसकी तृष्णा निवारित नहीं होती।
सरल व्यक्ति उर्द्धदृष्टिसंपन्न चातक के समान होता है। कपटी निम्नदृष्टिसंपन्न गृद्ध के समान। छोटा होओ, किंतु लक्ष्य उच्च हो; बड़ा एवं उच्च होकर निम्नदृष्टिसंपन्न गृद्ध के समान होने से लाभ ही क्या है?
कपटी मत बनो, अपने को न ठगो और दूसरे को भी न ठगो।

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