Saturday, 20 September 2008

सत्यानुसरण ४

संकोच ही दुःख है और प्रसारण ही है सुख। जिससे हृदय में दुर्बलता आती है, भय आता है--उसमें ही आनंद की कमी है-- और वही है दुःख।
चाह की अप्राप्ति ही है दुःख! कुछ भी न चाहो, सभी अवस्थाओं में राजी रहो, दुःख तुम्हारा क्या करेगा ?
दुःख किसी का प्रकृतिगत नहीं, इच्छा करने से ही उसे भगा दिया जा सकता है।
परमपिता से प्रार्थना करो- 'तुम्हारी इच्छा ही है मंगल, मैं नहीं जानता, कैसे मेरा मंगल होगा। मेरे भीतर तुम्हारी इच्छा ही पूर्ण हो।' और, उसके लिए तुम राजी रहो-आनंद में रहोगे, दुःख तुम्हें स्पर्श न करेगा।
किसी के दुःख का कारण न बनो, कोई तुम्हारे दुःख का कारण न बनेगा।
दुःख भी एक प्रकार का भाव है, सुख भी एक प्रकार का भावहै। अभाव या चाह का भाव ही है दुःख। तुम दुनियाँ के लिए हजार करके भी दुःख को दूर नहीं कर सकते-जबतक तुम हृदय से उस अभाव के भाव को निकाल नहीं लेते। और धर्म ही उसे कर सकता है।

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