Saturday, 20 September 2008

सत्यानुसरण २

अनुताप करो; किंतु स्मरण रखो जैसे पुनः अनुतप्त न होना पड़े !
जभी अपने कुकर्म के लिए तुम अनुतप्त होगे, तभी परमपिता तुम्हें क्षमा करेंगे और क्षमा होने पर ही समझोगे, तुम्हारे हृदय में पवित्र सांत्वना आ रही है और तभी तुम विनीत, शांत और आनंदित होगे ।
जो अनुतप्त होकर भी पुनः उसी प्रकार के दुष्कर्म में रत होता है, समझाना कि वह शीघ्र ही अत्यन्त दुर्गति में पतित होगा ।
सिर्फ़ मौखिक अनुताप तो अनुताप है ही नहीं, बल्कि वह अन्तर में अनुताप आने का और भी बाधक है। प्रकृत अनुताप आने पर उसके सभी लक्षण ही थोड़ा-बहुत प्रकाश पाते हैं।

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