यदि परीक्षक बनकर अहंकार सहित सदगुरु अथवा साधुगुरु की परीक्षा करने जाओगे तो तुम उनमें अपने को ही देखोगे, ठगे जाओगे।
सदगुरु की परीक्षा करने के लिये उनके निकट संकीर्ण-संस्कारविहीन हो प्रेम का हृदय लेकर, दीन एवं जहाँ तक सम्भव हो निरहंकार होकर जाने से उनकी दया से कोई संतुष्ट हो सकता है।
उन्हें अहं की कसौटी पर कसा नहीं जाता, किंतु वे प्रकृत दीनतारूपी भेड़े के सींग पर खंड-विखंड हो जाते हैं।
हीरा जिस तरह कोयला इत्यादि गन्दी चीजों में रहता है, उत्तम रूप से परिष्कार किए बिना उसकी ज्योति नहीं निकलती, वे भी उसी प्रकार संसार में अति साधारण जीव की तरह रहते हैं, केवल प्रेम के प्रक्षालन से ही उनकी दीप्ति से जगत उद्भासित होता है। प्रेमी ही उन्हें धर सकता है। प्रेमी का संग करो, सत्संग करो, वे स्वयं प्रकट होंगे।
अहंकारी की परीक्षा अहंकारी ही कर सकता है। गलित-अहं को वह कैसे जान सकता है ? उसके लिए एक किंभूतकिमाकार (अदभूत) लगेगा-- जिस तरह बज्रमूर्ख के सामने महापण्डित।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण
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