Saturday, 29 November 2008

सत्यानुसरण 57

जो वृद्धिप्राप्त होकर, सब कुछ होकर वही है--वही है ब्रह्म।
जगत् के समस्त ऐश्वर्य--ज्ञान, प्रेम एवं कर्म --जिनके अन्दर सहज उत्सारित हैं, और जिनके प्रति आसक्ति से मनुष्य का विच्छिन्न जीवन एवं जगत् के समस्त विरोधों का चरम समाधान लाभ होता है--वे ही हैं मनुष्य के भगवान।
भगवान को जानने का अर्थ ही है समस्त को समझना या जानना।
किसी मूर्त्त आदर्श में जिनकी कर्ममय अटूट आसक्ति ने समय या सीमा को अतिक्रम कर उन्हें सहज भाव से भगवान बना दिया है--जिनके, काव्य, दर्शन एवं विज्ञान मन के भले-बुरे विच्छिन्न संस्कारों को भेद कर उस आदर्श में ही सार्थक हो उठे हैं--वे ही हैं सद् गुरु।
जिनका मन सत् या एकासक्ति से पूर्ण हैं--वे ही सत् या सती हैं।
आदर्श में मन को सम्यक प्रकार से न्यस्त करने का नाम है संन्यास।
किसी विषय में मन के सम्यक भाव से लगे रहने का नाम है--समाधि।
नाम मनुष्य को तीक्ष्ण बनाता है और ध्यान मनुष्य को स्थिर और ग्रहणक्षम बनाता है।
ध्यान का अर्थ ही है किसी एक की चिंता में लगे रहना। और, उसे ही हम बोध कर सकते हैं--जो कि हमारे लगे रहने में विक्षेप ले आता है, किंतु भंग नहीं कर सकता है।
विरक्त होने का अर्थ ही है विक्षिप्त होना।
तीक्ष्ण होओ, किंतु स्थिर होओ--समस्त अनुभव कर पाओगे!
जिस किसी में युक्त होने या एकमुखी आसक्ति का नाम ही है--योग।
जिस किसी के द्वारा प्रतिहत होने पर जो अपने को प्रतिष्ठित करना चाहता है--वही है अहं (self)।
अहं को सख्त करने का अर्थ ही है दूसरे को नहीं जानना।
वस्तु-विषयक सम्यक दर्शन द्वारा तन्मनन से मन की निवृति जिन्हें हुई है--वे ही हैं ऋषि।
मन के सभी प्रकार की ग्रंथियों का (संस्कारों का) समाधान या मोचन हो कर एक में सार्थक होना ही है--मुक्ति।
जो भाव एवं कर्म मनुष्य को कारणमुखी बना देते हैं--वे ही हैं आध्यात्मिकता।
जो तुलना अन्तर्निहित कारण को प्रस्फुटित कर देती है--वही है प्रकृत विचार।
किसी वस्तु को लक्ष्य करके उसका स्वरूप निर्देशक विश्लेषण ही है --युक्ति।
कोई काम करके--विचार द्वारा उसके भले-बुरे को अनुभव कर जिस ताप के कारण बुराई से विरति आती है--वही है अनुताप।
जहाँ गमन करने से मन की ग्रंथि का मोचन या समाधान होता है--वही है तीर्थ।
जो करने से अस्तित्व की रक्षा होती है--वही है पुण्य।
जो करने से रक्षा से पतित होता है--वही है पाप।
जिसका अस्तित्व है एवं उसका विकास है--वही है सत्य (Real)।
जो धारणा करने से मन का निजत्व अक्षुण्ण रहता है--वही है ससीम।
जो धारणा करने से मन निजत्व को खो बैठता है--वही है अनंत या असीम।
शान्ति! शान्ति! शान्ति!
-- : श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 27 November 2008

सत्यानुसरण 56

जैसा करने से जिसकी प्राप्ति होती है, वैसा नहीं करते हो तो उसके लिये दुःखित मत होओ।
करने के पहले दुःख करना अप्राप्ति को ही बुलाता है।
पाने के लिये -- वह जो भी हो, सुनना होगा कि वह कैसे पाया जाता है--और ठीक-ठीक उसे करना होगा--बिना किये पाने के लिये उदग्रीव होने से बढकर बेवकूफी और क्या है?
निश्चय जानो--करना ही है पाने की जननी।
करनी जब चाह का अनुसरण करती है--तभी उसकी कृतार्थता सम्मुख उपस्थित होती है।
मनुष्य का आकांक्षित मंगल उसके अभ्यस्त संस्कार के अंतराल में रहता है, और मंगलदाता तभी दण्डित होते हैं जभी प्रदत्त मंगल का अभ्यस्त संस्कार के साथ विरोध उपस्थित होता है--और इसीलिए प्रेरित-पुरुष स्वदेश में कुत्सामंडित होते हैं।
प्रकृति उन्हें धिक्कारती है, जो की प्रत्यक्ष की अवज्ञा या अग्राह्य कर परोक्ष का आलिंगन करते हैं।
और, परोक्ष जिनके प्रत्यक्ष को रंजित वा लांछित करता है वे ही धोखे के अधिकारी होते हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 26 November 2008

सत्यानुसरण 55

प्रेम की प्रार्थना करो, और हिंसा को दूर से परिहार करो, जगत् तुम्हारी और आकृष्ट होगा ही।
तुम्हें मन का संन्यास हो; संन्यासी का वेष बनाकर झूठमूठ बहुरूपिया मत बन बैठो।
तुम्हारा मन सत् या ब्रह्म में विचरण करे, किंतु शरीर को गेरूआ या रंग टंग से सजाने में व्यस्त मत होओ, ऐसा करने से मन शरीरमुखी हो जायेगा।
अहंकार त्याग करो, सत् स्वरूप में अवस्थान कर पाओगे।
पतित को उद्धार की बात सुनाओ, आशा दो, छल-बल-कौशल से उसके उन्नयन में सहायता करो, साहस दो-किंतु उच्छृन्खल होने मत दो।
यदि किसी दिन अपने प्रेमास्पद को सर्वस्व न्योच्छावर कर निमज्जित हुए हो--और उतरा आने की आशंका देखते हो, तो जोर करके तत्क्षण निमज्जित होकर विगतप्राण हो जाओ--देखोगे--प्रेमास्पद कितने सुंदर हैं, किस प्रकार तुम्हें आलिंगन किए हुए हैं।
यदि थोडी-सी लोकनिंदा, उपहास, स्वजनानुरक्ति, स्वार्थहानि, अनादर, आत्म या परगंजना तुम्हें अपने प्रेमास्पद से दूर रख सके तो तुम्हारा प्रेम कितना क्षीण है--क्या ऐसी बात नहीं?
किसी चीज को "आज समझ गया हूँ फिर कल समझ में नहीं आती--पहेली" इत्यादि कहकर शृगाल मत बनो--कारण, इतर जंतु भी जिसे समझ लेते हैं उसे भूलते नहीं। इसीलिए, ऐसा बोलना ही दुष्ट या अस्थिर-बुद्धि का परिचायक है।
आज उपकृत हुआ हूँ इसलिए कल फिर स्वार्थान्ध होकर अपकृत होने का बहाना कर अकृतज्ञता को मत बुला लो। इससे बढ़कर इतरता और क्या है? जिस किसी से पूछ लो।
मूर्खता नहीं रहने से उपकृत की कुत्सा से उपकारी को निन्दित नहीं किया जाता।
उपकारी जब उपकृत द्बारा विध्वस्त होता है तब मूढ़ अहं कृतज्ञतारूपी अर्गला को तोड़कर दंभकंटकाकीर्ण मृत्यु-पथ को उन्मुक्त करता है।
आश्रित की निंदा से जो आश्रय को कुत्सित विवेचना करते हैं--विश्वासघातकता उनका पीछा करती है।
प्रिय के प्रति प्रेम या मंगलविहीन कर्म कभी भी प्रेम का परिचायक नहीं।
प्रियतम के लिए कुछ करने की इच्छा नहीं होती--तत्राच खूब प्रेम करता हूँ--यह बात जैसी है, सोने का पीतल से बने पंडूक की बात भी वैसी है। स्वार्थबुद्धि ही प्रायः वैसा प्रेम करती है, इसीलिए--वैसे निष्काम धर्माक्रांत प्रेम को देखकर सावधान होना अच्छा है, नहीं तो विपदा की संभावना ही अधिक है।
प्रेम करते हो--अपिच तुम्हारे ऊपर उसके जोर या आधिपत्य, शासन, अपमान, अभिमान अथवा जिद करने से ही तुम्हें सुख होने के बजाय उल्टा होता है या ख़त्म हो जाता है--मैं कहता हूँ--तुम निश्चय ठगाओगे एवं ठगोगे, जितने दिन इस तरह रहोगे, --इसीलिए अभी भी सावधान होओ।
प्रेम का मोह--बाधा पाते ही वृद्धि, प्रेमास्पद के अत्याचार में भी घृणा नहीं आती, विच्छेद में सतेज होता है, मनुष्य को मूढ़ नहीं बनता, चिर दिन अतृप्ति रहती है, एक बार स्पर्श कर लेने पर त्यागा नहीं जाता--अपरिवर्तनीय हैं।
काम का मोह--बाधा में क्षीण, काम के अत्याचार से या जैसा चाहता है वैसा नहीं पाने पर घृणा, विच्छेद में भूल, मनुष्य को कापुरुष एवं मूढ़ बना देता है, भोग में ही है तृप्ति एवं विषाद, चिर दिन नहीं रहता--परिवर्तनीय है।
गरीयान होओ किंतु गर्वित मत बनो।
यदि मुग्ध करना चाहते हो तो स्वयं सम्पूर्ण भाव से मुग्ध होओ।
यदि सुंदर होने की इच्छा हो तो कुरूप में भी सुंदर देखो।
एकानुरक्ति, तीव्रता एवं क्रमागति में ही जीवन का सौन्दर्य एवं सार्थकता है।
बहुतों के प्रति प्रीति जो एक के प्रति प्रीति को हिला या विच्छिन्न नहीं कर सकती, वही प्रीति है प्रेम की भगिनी।
भले-बुरे का विचार कर विध्वस्त होने के बजाय सत् में (गुरु में) आकृष्ट होओ -- निर्विघ्न रूप से सफल होगे निश्चय।
दुर्बलता के समय सुंदर एवं सबलता की चिंता करो, और अहंकार में प्रिय एवं दीनता की चिंता करो--मानसिक स्वास्थ्य अक्षुन्न रहेगा।
दोष देखकर दुष्ट मत बनो, और तुम में संलग्न सभी को दुष्ट मत बना दो।
उन्हें दो--मांगो नहीं--पाने पर आनादित होओ।
तुम उनके इच्छाधीन होओ, उन्हें अपने इच्छाधीन करने की चेष्टा न करो--कारण, तुम्हारे लिए वे ही सुंदर हैं।
मिलन की आकुलता को किसी भी तरह न त्यागो, अन्यथा विरह की व्यथा मधुर नहीं होगी--और, दुःख में शान्ति अनुभव नहीं कर पाओगे।
जिसके लिए तुम्हारा सोचना, करना एवं बोध जितना एवं जिस प्रकार है, उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति, खिंचाव या प्रेम उतना ही और उसी प्रकार है।
जिनके लिए सर्वस्व न्योच्छावर कर दिए हो-वे ही तुम्हारे भगवान् हैं, और वे ही हैं तुम्हारे परम गुरु।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 24 November 2008

सत्यानुसरण 54

तुम लता का स्वभाव अवलम्बन करो, और, आदर्शरूपी वृक्ष को लिपट कर धरो-सिद्धकाम होगे।
यदि तुम्हें आदर्श की बात बोलने में आनंद, सुनने में आनंद; उनकी चिंता करने में आनंद, उनका हुक्म पाने पर आनंद, उनके आदर में आनंद, अनादर में भी आनंद हो, उनके नाम से हृदय उछल पड़े-मैं निश्चय कहता हूँ, अपने उन्नयन के लिए तुम और नहीं सोचो।
सद् गुरु के शरणापन्न होओ, सत् नाम मनन करो, और, सत्संग का आश्रय ग्रहण करो--मैं निश्चय कहता हूँ, तुम्हें अपने उन्नयन के लिये सोचना नहीं पड़ेगा !
तुम भक्तिरूपी जल को त्याग कर आसक्तिरूपी बालू की रेत में बहुत दूर मत जाओ, दुःखरूपी सूर्योताप से बालू की रेत गर्म हो जाने पर लौटना मुश्किल होगा; थोड़ा उत्तप्त होते-होते अगर लौट नहीं सके, तो सूखकर मरना होगा।
भावमुखी रहने की चेष्टा करो, पतित नहीं होगे वरन अग्रसर होते रहोगे।
गुरुमुखी होने की चेष्टा करो, मन का अनुसरण नहीं करो--उन्नति तुम्हें किसी भी तरह त्याग नहीं करेगी।
विवेक को अवलम्बन करो, और मन का अनुसरण नहीं करो--उदारता तुम्हें कभी भी त्याग नहीं करेगी।
सत्य का आश्रय लो, और असत्य का अनुगमन नहीं करो--शान्ति तुम्हें किसी भी तरह छोड़कर नहीं रहेगी।
दीनता को अन्तर में स्थान दो--अहंकार तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकेगा।
जिसे त्याग करना हो उसकी ओर आकृष्ट या आसक्त न होना--दुःख से बचोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 23 November 2008

सत्यानुसरण 53

जभी देखो, मनुष्य तुम्हें प्रणाम करते हैं और उससे तुम्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं होती, मौखिक रूप से एक-आध बार आपत्ति कर लेते हो ठीक ही--मन में किंतु ऐसा विशेष कुछ भाव नहीं होता--तभी ठीक समझो, अन्तर में चोर के समान 'हमबड़ाई' प्रवेश कर गयी है; जितना शीघ्र हो, तुम सावधान हो जाओ, अन्यथा निश्चय ही अधःपतन में जाओगे।
जैसे ही किसी के प्रणाम करते ही साथ-साथ स्वयं दीनता से तुम्हारा सिर झुक जाता है, सेवा लेने के लिये मन एकदम राजी नहीं है, वरण सेवा करने के लिये मन सब समय व्यस्त रहता है, --आदर्श की बात कहते ही प्राण में आनंद होता है-तुम्हें भय नहीं, तुम मंगल की गोद में हो; एवं नित्य और भी अधिक ऐसे ही रहने की चेष्टा करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 21 November 2008

सत्यानुसरण 52

देह रहते अहंकार नहीं जाता, और, भाव रहते अहं नहीं जाता। तब अपने अहं को आदर्श पर छोड़ कर passive होकर जो जितना रह सकता है वह उतना है निरहंकार एवं वह उतना उदार है।
अपने पर गर्व जितना न किया जाय उतना ही मंगल, और आदर्श पर गर्व जितना किया जाय उतना ही मंगल।
परमपिता ही तुम्हारे अहंकार के विषय हों, और तुम उनमें ही आनंद उपभोग करो !
असत् आदर्श में अपना अहंकार न्यस्त न करो; अन्यथा तुम्हारा अहंकार और भी कठिन होगा।
आदर्श जितना उच्च या उदार हो उतना ही अच्छा है, कारण, जितनी उच्चता या उदारता का आश्रय लोगे, तुम भी उतना ही उच्च या उदार बनोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 20 November 2008

सत्यानुसरण 51

जो अपना प्रचार करता है वह आत्म-प्रवंचना करता है, और, जो सत्य या आदर्श में मुग्ध होकर उसके विषय में कहता है, वही किंतु ठीक-ठीक आत्म-प्रचार करता है !
प्रकृत सत्य-प्रचारक ही जगत् के प्रकृत मंगलाकांक्षी हैं। उनकी दया से कितने जीवों का जो आत्मोन्नयन होता है उसकी इयत्ता नहीं।
तुम सत्य या आदर्श में मुग्ध रहो, हृदय में भाव स्वयं उबल पड़ेगा और उसी भाव में अनुप्राणित होकर कितने लोगों की जो उन्नति होगी उसकी कोई सीमा नहीं।
गुरु होना मत चाहो; गुरुमुख होने की चेष्टा करो। गुरु ही होते हैं जीव के प्रकृत उद्धारकर्ता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण