Wednesday, 26 November 2008

सत्यानुसरण 55

प्रेम की प्रार्थना करो, और हिंसा को दूर से परिहार करो, जगत् तुम्हारी और आकृष्ट होगा ही।
तुम्हें मन का संन्यास हो; संन्यासी का वेष बनाकर झूठमूठ बहुरूपिया मत बन बैठो।
तुम्हारा मन सत् या ब्रह्म में विचरण करे, किंतु शरीर को गेरूआ या रंग टंग से सजाने में व्यस्त मत होओ, ऐसा करने से मन शरीरमुखी हो जायेगा।
अहंकार त्याग करो, सत् स्वरूप में अवस्थान कर पाओगे।
पतित को उद्धार की बात सुनाओ, आशा दो, छल-बल-कौशल से उसके उन्नयन में सहायता करो, साहस दो-किंतु उच्छृन्खल होने मत दो।
यदि किसी दिन अपने प्रेमास्पद को सर्वस्व न्योच्छावर कर निमज्जित हुए हो--और उतरा आने की आशंका देखते हो, तो जोर करके तत्क्षण निमज्जित होकर विगतप्राण हो जाओ--देखोगे--प्रेमास्पद कितने सुंदर हैं, किस प्रकार तुम्हें आलिंगन किए हुए हैं।
यदि थोडी-सी लोकनिंदा, उपहास, स्वजनानुरक्ति, स्वार्थहानि, अनादर, आत्म या परगंजना तुम्हें अपने प्रेमास्पद से दूर रख सके तो तुम्हारा प्रेम कितना क्षीण है--क्या ऐसी बात नहीं?
किसी चीज को "आज समझ गया हूँ फिर कल समझ में नहीं आती--पहेली" इत्यादि कहकर शृगाल मत बनो--कारण, इतर जंतु भी जिसे समझ लेते हैं उसे भूलते नहीं। इसीलिए, ऐसा बोलना ही दुष्ट या अस्थिर-बुद्धि का परिचायक है।
आज उपकृत हुआ हूँ इसलिए कल फिर स्वार्थान्ध होकर अपकृत होने का बहाना कर अकृतज्ञता को मत बुला लो। इससे बढ़कर इतरता और क्या है? जिस किसी से पूछ लो।
मूर्खता नहीं रहने से उपकृत की कुत्सा से उपकारी को निन्दित नहीं किया जाता।
उपकारी जब उपकृत द्बारा विध्वस्त होता है तब मूढ़ अहं कृतज्ञतारूपी अर्गला को तोड़कर दंभकंटकाकीर्ण मृत्यु-पथ को उन्मुक्त करता है।
आश्रित की निंदा से जो आश्रय को कुत्सित विवेचना करते हैं--विश्वासघातकता उनका पीछा करती है।
प्रिय के प्रति प्रेम या मंगलविहीन कर्म कभी भी प्रेम का परिचायक नहीं।
प्रियतम के लिए कुछ करने की इच्छा नहीं होती--तत्राच खूब प्रेम करता हूँ--यह बात जैसी है, सोने का पीतल से बने पंडूक की बात भी वैसी है। स्वार्थबुद्धि ही प्रायः वैसा प्रेम करती है, इसीलिए--वैसे निष्काम धर्माक्रांत प्रेम को देखकर सावधान होना अच्छा है, नहीं तो विपदा की संभावना ही अधिक है।
प्रेम करते हो--अपिच तुम्हारे ऊपर उसके जोर या आधिपत्य, शासन, अपमान, अभिमान अथवा जिद करने से ही तुम्हें सुख होने के बजाय उल्टा होता है या ख़त्म हो जाता है--मैं कहता हूँ--तुम निश्चय ठगाओगे एवं ठगोगे, जितने दिन इस तरह रहोगे, --इसीलिए अभी भी सावधान होओ।
प्रेम का मोह--बाधा पाते ही वृद्धि, प्रेमास्पद के अत्याचार में भी घृणा नहीं आती, विच्छेद में सतेज होता है, मनुष्य को मूढ़ नहीं बनता, चिर दिन अतृप्ति रहती है, एक बार स्पर्श कर लेने पर त्यागा नहीं जाता--अपरिवर्तनीय हैं।
काम का मोह--बाधा में क्षीण, काम के अत्याचार से या जैसा चाहता है वैसा नहीं पाने पर घृणा, विच्छेद में भूल, मनुष्य को कापुरुष एवं मूढ़ बना देता है, भोग में ही है तृप्ति एवं विषाद, चिर दिन नहीं रहता--परिवर्तनीय है।
गरीयान होओ किंतु गर्वित मत बनो।
यदि मुग्ध करना चाहते हो तो स्वयं सम्पूर्ण भाव से मुग्ध होओ।
यदि सुंदर होने की इच्छा हो तो कुरूप में भी सुंदर देखो।
एकानुरक्ति, तीव्रता एवं क्रमागति में ही जीवन का सौन्दर्य एवं सार्थकता है।
बहुतों के प्रति प्रीति जो एक के प्रति प्रीति को हिला या विच्छिन्न नहीं कर सकती, वही प्रीति है प्रेम की भगिनी।
भले-बुरे का विचार कर विध्वस्त होने के बजाय सत् में (गुरु में) आकृष्ट होओ -- निर्विघ्न रूप से सफल होगे निश्चय।
दुर्बलता के समय सुंदर एवं सबलता की चिंता करो, और अहंकार में प्रिय एवं दीनता की चिंता करो--मानसिक स्वास्थ्य अक्षुन्न रहेगा।
दोष देखकर दुष्ट मत बनो, और तुम में संलग्न सभी को दुष्ट मत बना दो।
उन्हें दो--मांगो नहीं--पाने पर आनादित होओ।
तुम उनके इच्छाधीन होओ, उन्हें अपने इच्छाधीन करने की चेष्टा न करो--कारण, तुम्हारे लिए वे ही सुंदर हैं।
मिलन की आकुलता को किसी भी तरह न त्यागो, अन्यथा विरह की व्यथा मधुर नहीं होगी--और, दुःख में शान्ति अनुभव नहीं कर पाओगे।
जिसके लिए तुम्हारा सोचना, करना एवं बोध जितना एवं जिस प्रकार है, उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति, खिंचाव या प्रेम उतना ही और उसी प्रकार है।
जिनके लिए सर्वस्व न्योच्छावर कर दिए हो-वे ही तुम्हारे भगवान् हैं, और वे ही हैं तुम्हारे परम गुरु।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

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