अनुभूति द्वारा जो जाना जाय वही ज्ञान है।
जानने को ही वेद कहते हैं और वेद अखण्ड है।
जो जितना जानता है वह उतना ही भर वेदवित् है।
ज्ञान प्रहेलिका को ध्वंस कर मनुष्य को प्रकृत चक्षु प्रदान करता है।
ज्ञान वस्तु के स्वरूप को निर्देश करता है और वस्तु के जिस भाव को जान लेने पर जानना बाकी नहीं रहता, वही उसका स्वरूप है।
भक्ति चित्त को सत् में संलग्न करने की चेष्टा करती है, और उससे जो उपलब्धि होती है वही है ज्ञान।
अज्ञानता मनुष्य को उद्विग्न करती है, ज्ञान मनुष्य को शांत करता है। अज्ञानता ही दुःख का कारण है और ज्ञान ही आनंद है।
तुम जितने ज्ञान का अधिकारी होगे, उतना भर शांत होगे। तुम्हारा ज्ञान जैसा होगा, स्वच्छंद रूप से रहने की तुम्हारी क्षमता भी वैसी होगी।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण
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