Monday, 3 November 2008

सत्यानुसरण 38

विश्वास विरुद्ध भाव द्वारा आक्रांत होने पर ही संदेह आता है।
विश्वास संदेह द्वारा अभिभूत होने पर मन जब उसे ही समर्थन करता है तभी अवसाद आता है।
प्रतिकूल युक्ति त्याग कर विश्वास के अनुकूल युक्ति के श्रवण एवं मनन से संदेह दूरीभूत होता है, अवसाद नहीं रहता।
विश्वास प़क जाने पर कोई भी विरुद्ध भाव उसे हिला नहीं सकता।
प्रकृत विश्वासी को संदेह ही क्या करेगा या अवसाद ही क्या करेगा।
संदेह को प्रश्रय देने से वह घूण की तरह मन पर आक्रमण करता है, अंत में अविश्वासरुपी जीर्णता की चरममलिन दशा को प्राप्त होता है।
संदेह का निराकरण कर विश्वास की स्थापना करना ही है ज्ञानप्राप्ति।
तुम यदि पक्के विश्वासी होओ, विश्वास अनुयायी भाव के सिवाय जगत् का कोई विरुद्ध भाव, कोई मन्त्र, कोई शक्ति तुम्हें अभिभूत या जादू नहीं कर सकेगी, निश्चय जानो।
तुम्हारे मन से जिस परिमाण में विश्वास हटेगा, जगत् तुम पर उसी परिमाण में संदेह करेगा या अविश्वास करेगा एवं दुर्दशा भी तुम पर उसी परिमाण में आक्रमण करेगी, यह निश्चित है।
अविश्वास क्षेत्र दुर्दशा या दुर्गति का राजत्व है।
विश्वास-क्षेत्र बड़ा ही उर्वर है। सावधान, अविश्वासरूपी जंगल-झाड़ के संदेहरूपी अंकुर निकलते देखते ही तत्क्षण उसे उखाड़ फेंको, नहीं तो भक्तिरूपी अमृत-वृक्ष बढ़ नहीं सकेगा।
श्रद्धा और विश्वास दोनों भाई हैं, एक के आते ही दूसरा भी आता है।
संदेह का निराकरण करो, विश्वास के सिंहासन पर भक्ति को बैठाओ, हृदय में धर्मराज्य संस्थापित हो।
सत् में निरवच्छिन्न संलग्न रहने की चेष्टा को ही भक्ति कहते हैं।
भक्त ही प्रकृत ज्ञानी है, भक्तिविहीन ज्ञान वाचक ज्ञान मात्र है।
तुम सोअहं ही बोलो और ब्रह्मास्मि ही बोलो, किंतु भक्ति अवलंबन करो, तभी वह भाव तुम्हें अवलंबन करेगा; नहीं तो किसी भी तरह कुछ नहीं होगा।
विश्वास जैसा है, भक्ति उसी तरह आएगी एवं ज्ञान भी होगा तदनुयायी।
पहले निरहंकार होने की चेष्टा करो; बाद में 'सोअहं' कहो, नहीं तो 'सोअहं' तुम्हें और भी अध:पतन में ले जा सकता है।
तुम यदि सत् चिंता में संयुक्त रहने की चेष्टा करो, तुम्हारी चिंता, आचार, व्यवहार इत्यादि उदार एवं सत्य होते रहेंगे और वे सब भक्त के लक्षण हैं।
संकीर्णता के निकट जाने से मन संकीर्ण हो जाता है एवं विस्तृति के निकट जाने से मन विस्तृति लाभ करता है; उसी प्रकार भक्त के निकट जाने से मन उदार होता है और जितनी उदारता है उतनी ही शान्ति।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

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