Sunday, 16 November 2008

सत्यानुसरण 50

तुम्हारे भीतर यदि सत्य नहीं रहे, तब हजार बोलो, हजार ढोंग करो, हजार कायदा ही दिखाओ, तुम्हारे चरित्र से, तुम्हारे मन से, तुम्हारे वाक्य से उसकी ज्योति किसी भी तरह प्रकाशित नहीं होगी; सूर्य यदि नहीं रहे तो बहुत से चिराग भी अन्धकार को बिल्कुल दूर नहीं कर सकते।
जो सत्य का प्रचार करने में अपने महत्व का गल्प करता है एवं हर समय अपने को लेकर ही व्यस्त रहता है और नाना प्रकार से कायदा करके अपने को सुंदर दिखाना चाहता है, जिसके प्रति अंग-संचालन में, झलक-झलक में अहंकार झलकता रहता है, जिसके प्रेम में अहंकार, बात में अहंकार, दीनता में अहंकार, विश्वास में, ज्ञान में, भक्ति में, निर्भरता में अहंकार है- वह हजार पंडित हो, और वह चाहे ज्ञान-भक्ति की जितनी भी बातें क्यों न करे, निश्चय जानो वह भण्ड है; उससे बहुत दूर हट जाओ, उसकी बातें मत सुनो; किसी भी तरह उसके हृदय में सत्य नहीं है, मन में सत्य नहीं रहने से भाव कैसे आएगा।
प्रचार का अहंकार प्रकृत-प्रचार का बाधक है। वही प्रकृत प्रचारक है जो अपने महत्व की बात भूलकर भी जबान पर नहीं लाता, और, शरीर द्वारा सत्य का आचरण करता है, मन से सत्य-चिंता में मुग्ध रहता है एवं मुख से मन के भावानुयायी सत्य के विषय में कहता है।
जहाँ देखोगे, कोई विश्वास के गर्व के साथ सत्य के विषय में कहता है, दया की बातें बोलते-बोलते आनंद एवं दीनता से अधीर हो पड़ता है, प्रेम सहित आवेगपूर्ण होकर सभी को पुकारता है, आलिंगन करता है और जिस मुहूर्त में उसके महत्व ही बात कोई कहता है, उसे स्वीकार नहीं करता, वरन दीन एवं म्लान होकर भग्न-हृदय की तरह हो जाता है--यह बिल्कुल सही है की उसके पास उज्जवल सत्य निश्चय ही है, और, उसके साधारण चरित्र में भी देखोगे, सत्य प्रस्फुटित हो रहा है।
तुम भक्तिरूपी तेल में ज्ञानरूपी बत्ती भींगोकर सत्यरूपी चिराग जलाओ, देखोगे कितने फतिंगे, कितने कीडे, कितने जानवर, कितने मनुष्यों ने तुम्हें किस प्रकार घेर लिया है।
जो सत् की ही चिंता करता है, सत् की ही याजन करता है, जो सत्य का ही भक्त है, वही है प्रकृत प्रचारक।
आदर्श में गहरा विश्वास नहीं रहने पर निष्ठा भी नहीं आती, भक्ति भी नहीं आती; और, भक्ति नहीं होने से अनुभूति ही क्या होगी, ज्ञान ही क्या होगा, और वह प्रचार ही क्या करेगा ?
प्रकृत सत्य-प्रचारक का अहंकार अपने आदर्श में रहता है और भण्ड प्रचारक का अहंकार आत्म-प्रचार में।
जिसे मंगल समझोगे, जिसे सत्य समझोगे, मनुष्य से उसे कहने के लिए हृदय व्याकुल हो उठेगा, मनुष्य चाहे तुम्हें जो भी क्यों न कहें, मन पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा, किंतु मनुष्य को सत्यमुखी देखकर आनंद होगा--तभी उसे प्रचार कहा जायेगा।
ठीक-ठीक विश्वास, निर्भरता एवं भक्ति नहीं रहने पर कोई कभी भी प्रचारक नहीं हो सकता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

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