Sunday, 23 November 2008

सत्यानुसरण 53

जभी देखो, मनुष्य तुम्हें प्रणाम करते हैं और उससे तुम्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं होती, मौखिक रूप से एक-आध बार आपत्ति कर लेते हो ठीक ही--मन में किंतु ऐसा विशेष कुछ भाव नहीं होता--तभी ठीक समझो, अन्तर में चोर के समान 'हमबड़ाई' प्रवेश कर गयी है; जितना शीघ्र हो, तुम सावधान हो जाओ, अन्यथा निश्चय ही अधःपतन में जाओगे।
जैसे ही किसी के प्रणाम करते ही साथ-साथ स्वयं दीनता से तुम्हारा सिर झुक जाता है, सेवा लेने के लिये मन एकदम राजी नहीं है, वरण सेवा करने के लिये मन सब समय व्यस्त रहता है, --आदर्श की बात कहते ही प्राण में आनंद होता है-तुम्हें भय नहीं, तुम मंगल की गोद में हो; एवं नित्य और भी अधिक ऐसे ही रहने की चेष्टा करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

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