Saturday, 29 November 2008

सत्यानुसरण 57

जो वृद्धिप्राप्त होकर, सब कुछ होकर वही है--वही है ब्रह्म।
जगत् के समस्त ऐश्वर्य--ज्ञान, प्रेम एवं कर्म --जिनके अन्दर सहज उत्सारित हैं, और जिनके प्रति आसक्ति से मनुष्य का विच्छिन्न जीवन एवं जगत् के समस्त विरोधों का चरम समाधान लाभ होता है--वे ही हैं मनुष्य के भगवान।
भगवान को जानने का अर्थ ही है समस्त को समझना या जानना।
किसी मूर्त्त आदर्श में जिनकी कर्ममय अटूट आसक्ति ने समय या सीमा को अतिक्रम कर उन्हें सहज भाव से भगवान बना दिया है--जिनके, काव्य, दर्शन एवं विज्ञान मन के भले-बुरे विच्छिन्न संस्कारों को भेद कर उस आदर्श में ही सार्थक हो उठे हैं--वे ही हैं सद् गुरु।
जिनका मन सत् या एकासक्ति से पूर्ण हैं--वे ही सत् या सती हैं।
आदर्श में मन को सम्यक प्रकार से न्यस्त करने का नाम है संन्यास।
किसी विषय में मन के सम्यक भाव से लगे रहने का नाम है--समाधि।
नाम मनुष्य को तीक्ष्ण बनाता है और ध्यान मनुष्य को स्थिर और ग्रहणक्षम बनाता है।
ध्यान का अर्थ ही है किसी एक की चिंता में लगे रहना। और, उसे ही हम बोध कर सकते हैं--जो कि हमारे लगे रहने में विक्षेप ले आता है, किंतु भंग नहीं कर सकता है।
विरक्त होने का अर्थ ही है विक्षिप्त होना।
तीक्ष्ण होओ, किंतु स्थिर होओ--समस्त अनुभव कर पाओगे!
जिस किसी में युक्त होने या एकमुखी आसक्ति का नाम ही है--योग।
जिस किसी के द्वारा प्रतिहत होने पर जो अपने को प्रतिष्ठित करना चाहता है--वही है अहं (self)।
अहं को सख्त करने का अर्थ ही है दूसरे को नहीं जानना।
वस्तु-विषयक सम्यक दर्शन द्वारा तन्मनन से मन की निवृति जिन्हें हुई है--वे ही हैं ऋषि।
मन के सभी प्रकार की ग्रंथियों का (संस्कारों का) समाधान या मोचन हो कर एक में सार्थक होना ही है--मुक्ति।
जो भाव एवं कर्म मनुष्य को कारणमुखी बना देते हैं--वे ही हैं आध्यात्मिकता।
जो तुलना अन्तर्निहित कारण को प्रस्फुटित कर देती है--वही है प्रकृत विचार।
किसी वस्तु को लक्ष्य करके उसका स्वरूप निर्देशक विश्लेषण ही है --युक्ति।
कोई काम करके--विचार द्वारा उसके भले-बुरे को अनुभव कर जिस ताप के कारण बुराई से विरति आती है--वही है अनुताप।
जहाँ गमन करने से मन की ग्रंथि का मोचन या समाधान होता है--वही है तीर्थ।
जो करने से अस्तित्व की रक्षा होती है--वही है पुण्य।
जो करने से रक्षा से पतित होता है--वही है पाप।
जिसका अस्तित्व है एवं उसका विकास है--वही है सत्य (Real)।
जो धारणा करने से मन का निजत्व अक्षुण्ण रहता है--वही है ससीम।
जो धारणा करने से मन निजत्व को खो बैठता है--वही है अनंत या असीम।
शान्ति! शान्ति! शान्ति!
-- : श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 27 November 2008

सत्यानुसरण 56

जैसा करने से जिसकी प्राप्ति होती है, वैसा नहीं करते हो तो उसके लिये दुःखित मत होओ।
करने के पहले दुःख करना अप्राप्ति को ही बुलाता है।
पाने के लिये -- वह जो भी हो, सुनना होगा कि वह कैसे पाया जाता है--और ठीक-ठीक उसे करना होगा--बिना किये पाने के लिये उदग्रीव होने से बढकर बेवकूफी और क्या है?
निश्चय जानो--करना ही है पाने की जननी।
करनी जब चाह का अनुसरण करती है--तभी उसकी कृतार्थता सम्मुख उपस्थित होती है।
मनुष्य का आकांक्षित मंगल उसके अभ्यस्त संस्कार के अंतराल में रहता है, और मंगलदाता तभी दण्डित होते हैं जभी प्रदत्त मंगल का अभ्यस्त संस्कार के साथ विरोध उपस्थित होता है--और इसीलिए प्रेरित-पुरुष स्वदेश में कुत्सामंडित होते हैं।
प्रकृति उन्हें धिक्कारती है, जो की प्रत्यक्ष की अवज्ञा या अग्राह्य कर परोक्ष का आलिंगन करते हैं।
और, परोक्ष जिनके प्रत्यक्ष को रंजित वा लांछित करता है वे ही धोखे के अधिकारी होते हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 26 November 2008

सत्यानुसरण 55

प्रेम की प्रार्थना करो, और हिंसा को दूर से परिहार करो, जगत् तुम्हारी और आकृष्ट होगा ही।
तुम्हें मन का संन्यास हो; संन्यासी का वेष बनाकर झूठमूठ बहुरूपिया मत बन बैठो।
तुम्हारा मन सत् या ब्रह्म में विचरण करे, किंतु शरीर को गेरूआ या रंग टंग से सजाने में व्यस्त मत होओ, ऐसा करने से मन शरीरमुखी हो जायेगा।
अहंकार त्याग करो, सत् स्वरूप में अवस्थान कर पाओगे।
पतित को उद्धार की बात सुनाओ, आशा दो, छल-बल-कौशल से उसके उन्नयन में सहायता करो, साहस दो-किंतु उच्छृन्खल होने मत दो।
यदि किसी दिन अपने प्रेमास्पद को सर्वस्व न्योच्छावर कर निमज्जित हुए हो--और उतरा आने की आशंका देखते हो, तो जोर करके तत्क्षण निमज्जित होकर विगतप्राण हो जाओ--देखोगे--प्रेमास्पद कितने सुंदर हैं, किस प्रकार तुम्हें आलिंगन किए हुए हैं।
यदि थोडी-सी लोकनिंदा, उपहास, स्वजनानुरक्ति, स्वार्थहानि, अनादर, आत्म या परगंजना तुम्हें अपने प्रेमास्पद से दूर रख सके तो तुम्हारा प्रेम कितना क्षीण है--क्या ऐसी बात नहीं?
किसी चीज को "आज समझ गया हूँ फिर कल समझ में नहीं आती--पहेली" इत्यादि कहकर शृगाल मत बनो--कारण, इतर जंतु भी जिसे समझ लेते हैं उसे भूलते नहीं। इसीलिए, ऐसा बोलना ही दुष्ट या अस्थिर-बुद्धि का परिचायक है।
आज उपकृत हुआ हूँ इसलिए कल फिर स्वार्थान्ध होकर अपकृत होने का बहाना कर अकृतज्ञता को मत बुला लो। इससे बढ़कर इतरता और क्या है? जिस किसी से पूछ लो।
मूर्खता नहीं रहने से उपकृत की कुत्सा से उपकारी को निन्दित नहीं किया जाता।
उपकारी जब उपकृत द्बारा विध्वस्त होता है तब मूढ़ अहं कृतज्ञतारूपी अर्गला को तोड़कर दंभकंटकाकीर्ण मृत्यु-पथ को उन्मुक्त करता है।
आश्रित की निंदा से जो आश्रय को कुत्सित विवेचना करते हैं--विश्वासघातकता उनका पीछा करती है।
प्रिय के प्रति प्रेम या मंगलविहीन कर्म कभी भी प्रेम का परिचायक नहीं।
प्रियतम के लिए कुछ करने की इच्छा नहीं होती--तत्राच खूब प्रेम करता हूँ--यह बात जैसी है, सोने का पीतल से बने पंडूक की बात भी वैसी है। स्वार्थबुद्धि ही प्रायः वैसा प्रेम करती है, इसीलिए--वैसे निष्काम धर्माक्रांत प्रेम को देखकर सावधान होना अच्छा है, नहीं तो विपदा की संभावना ही अधिक है।
प्रेम करते हो--अपिच तुम्हारे ऊपर उसके जोर या आधिपत्य, शासन, अपमान, अभिमान अथवा जिद करने से ही तुम्हें सुख होने के बजाय उल्टा होता है या ख़त्म हो जाता है--मैं कहता हूँ--तुम निश्चय ठगाओगे एवं ठगोगे, जितने दिन इस तरह रहोगे, --इसीलिए अभी भी सावधान होओ।
प्रेम का मोह--बाधा पाते ही वृद्धि, प्रेमास्पद के अत्याचार में भी घृणा नहीं आती, विच्छेद में सतेज होता है, मनुष्य को मूढ़ नहीं बनता, चिर दिन अतृप्ति रहती है, एक बार स्पर्श कर लेने पर त्यागा नहीं जाता--अपरिवर्तनीय हैं।
काम का मोह--बाधा में क्षीण, काम के अत्याचार से या जैसा चाहता है वैसा नहीं पाने पर घृणा, विच्छेद में भूल, मनुष्य को कापुरुष एवं मूढ़ बना देता है, भोग में ही है तृप्ति एवं विषाद, चिर दिन नहीं रहता--परिवर्तनीय है।
गरीयान होओ किंतु गर्वित मत बनो।
यदि मुग्ध करना चाहते हो तो स्वयं सम्पूर्ण भाव से मुग्ध होओ।
यदि सुंदर होने की इच्छा हो तो कुरूप में भी सुंदर देखो।
एकानुरक्ति, तीव्रता एवं क्रमागति में ही जीवन का सौन्दर्य एवं सार्थकता है।
बहुतों के प्रति प्रीति जो एक के प्रति प्रीति को हिला या विच्छिन्न नहीं कर सकती, वही प्रीति है प्रेम की भगिनी।
भले-बुरे का विचार कर विध्वस्त होने के बजाय सत् में (गुरु में) आकृष्ट होओ -- निर्विघ्न रूप से सफल होगे निश्चय।
दुर्बलता के समय सुंदर एवं सबलता की चिंता करो, और अहंकार में प्रिय एवं दीनता की चिंता करो--मानसिक स्वास्थ्य अक्षुन्न रहेगा।
दोष देखकर दुष्ट मत बनो, और तुम में संलग्न सभी को दुष्ट मत बना दो।
उन्हें दो--मांगो नहीं--पाने पर आनादित होओ।
तुम उनके इच्छाधीन होओ, उन्हें अपने इच्छाधीन करने की चेष्टा न करो--कारण, तुम्हारे लिए वे ही सुंदर हैं।
मिलन की आकुलता को किसी भी तरह न त्यागो, अन्यथा विरह की व्यथा मधुर नहीं होगी--और, दुःख में शान्ति अनुभव नहीं कर पाओगे।
जिसके लिए तुम्हारा सोचना, करना एवं बोध जितना एवं जिस प्रकार है, उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति, खिंचाव या प्रेम उतना ही और उसी प्रकार है।
जिनके लिए सर्वस्व न्योच्छावर कर दिए हो-वे ही तुम्हारे भगवान् हैं, और वे ही हैं तुम्हारे परम गुरु।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 24 November 2008

सत्यानुसरण 54

तुम लता का स्वभाव अवलम्बन करो, और, आदर्शरूपी वृक्ष को लिपट कर धरो-सिद्धकाम होगे।
यदि तुम्हें आदर्श की बात बोलने में आनंद, सुनने में आनंद; उनकी चिंता करने में आनंद, उनका हुक्म पाने पर आनंद, उनके आदर में आनंद, अनादर में भी आनंद हो, उनके नाम से हृदय उछल पड़े-मैं निश्चय कहता हूँ, अपने उन्नयन के लिए तुम और नहीं सोचो।
सद् गुरु के शरणापन्न होओ, सत् नाम मनन करो, और, सत्संग का आश्रय ग्रहण करो--मैं निश्चय कहता हूँ, तुम्हें अपने उन्नयन के लिये सोचना नहीं पड़ेगा !
तुम भक्तिरूपी जल को त्याग कर आसक्तिरूपी बालू की रेत में बहुत दूर मत जाओ, दुःखरूपी सूर्योताप से बालू की रेत गर्म हो जाने पर लौटना मुश्किल होगा; थोड़ा उत्तप्त होते-होते अगर लौट नहीं सके, तो सूखकर मरना होगा।
भावमुखी रहने की चेष्टा करो, पतित नहीं होगे वरन अग्रसर होते रहोगे।
गुरुमुखी होने की चेष्टा करो, मन का अनुसरण नहीं करो--उन्नति तुम्हें किसी भी तरह त्याग नहीं करेगी।
विवेक को अवलम्बन करो, और मन का अनुसरण नहीं करो--उदारता तुम्हें कभी भी त्याग नहीं करेगी।
सत्य का आश्रय लो, और असत्य का अनुगमन नहीं करो--शान्ति तुम्हें किसी भी तरह छोड़कर नहीं रहेगी।
दीनता को अन्तर में स्थान दो--अहंकार तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकेगा।
जिसे त्याग करना हो उसकी ओर आकृष्ट या आसक्त न होना--दुःख से बचोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 23 November 2008

सत्यानुसरण 53

जभी देखो, मनुष्य तुम्हें प्रणाम करते हैं और उससे तुम्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं होती, मौखिक रूप से एक-आध बार आपत्ति कर लेते हो ठीक ही--मन में किंतु ऐसा विशेष कुछ भाव नहीं होता--तभी ठीक समझो, अन्तर में चोर के समान 'हमबड़ाई' प्रवेश कर गयी है; जितना शीघ्र हो, तुम सावधान हो जाओ, अन्यथा निश्चय ही अधःपतन में जाओगे।
जैसे ही किसी के प्रणाम करते ही साथ-साथ स्वयं दीनता से तुम्हारा सिर झुक जाता है, सेवा लेने के लिये मन एकदम राजी नहीं है, वरण सेवा करने के लिये मन सब समय व्यस्त रहता है, --आदर्श की बात कहते ही प्राण में आनंद होता है-तुम्हें भय नहीं, तुम मंगल की गोद में हो; एवं नित्य और भी अधिक ऐसे ही रहने की चेष्टा करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 21 November 2008

सत्यानुसरण 52

देह रहते अहंकार नहीं जाता, और, भाव रहते अहं नहीं जाता। तब अपने अहं को आदर्श पर छोड़ कर passive होकर जो जितना रह सकता है वह उतना है निरहंकार एवं वह उतना उदार है।
अपने पर गर्व जितना न किया जाय उतना ही मंगल, और आदर्श पर गर्व जितना किया जाय उतना ही मंगल।
परमपिता ही तुम्हारे अहंकार के विषय हों, और तुम उनमें ही आनंद उपभोग करो !
असत् आदर्श में अपना अहंकार न्यस्त न करो; अन्यथा तुम्हारा अहंकार और भी कठिन होगा।
आदर्श जितना उच्च या उदार हो उतना ही अच्छा है, कारण, जितनी उच्चता या उदारता का आश्रय लोगे, तुम भी उतना ही उच्च या उदार बनोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 20 November 2008

सत्यानुसरण 51

जो अपना प्रचार करता है वह आत्म-प्रवंचना करता है, और, जो सत्य या आदर्श में मुग्ध होकर उसके विषय में कहता है, वही किंतु ठीक-ठीक आत्म-प्रचार करता है !
प्रकृत सत्य-प्रचारक ही जगत् के प्रकृत मंगलाकांक्षी हैं। उनकी दया से कितने जीवों का जो आत्मोन्नयन होता है उसकी इयत्ता नहीं।
तुम सत्य या आदर्श में मुग्ध रहो, हृदय में भाव स्वयं उबल पड़ेगा और उसी भाव में अनुप्राणित होकर कितने लोगों की जो उन्नति होगी उसकी कोई सीमा नहीं।
गुरु होना मत चाहो; गुरुमुख होने की चेष्टा करो। गुरु ही होते हैं जीव के प्रकृत उद्धारकर्ता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 16 November 2008

सत्यानुसरण 50

तुम्हारे भीतर यदि सत्य नहीं रहे, तब हजार बोलो, हजार ढोंग करो, हजार कायदा ही दिखाओ, तुम्हारे चरित्र से, तुम्हारे मन से, तुम्हारे वाक्य से उसकी ज्योति किसी भी तरह प्रकाशित नहीं होगी; सूर्य यदि नहीं रहे तो बहुत से चिराग भी अन्धकार को बिल्कुल दूर नहीं कर सकते।
जो सत्य का प्रचार करने में अपने महत्व का गल्प करता है एवं हर समय अपने को लेकर ही व्यस्त रहता है और नाना प्रकार से कायदा करके अपने को सुंदर दिखाना चाहता है, जिसके प्रति अंग-संचालन में, झलक-झलक में अहंकार झलकता रहता है, जिसके प्रेम में अहंकार, बात में अहंकार, दीनता में अहंकार, विश्वास में, ज्ञान में, भक्ति में, निर्भरता में अहंकार है- वह हजार पंडित हो, और वह चाहे ज्ञान-भक्ति की जितनी भी बातें क्यों न करे, निश्चय जानो वह भण्ड है; उससे बहुत दूर हट जाओ, उसकी बातें मत सुनो; किसी भी तरह उसके हृदय में सत्य नहीं है, मन में सत्य नहीं रहने से भाव कैसे आएगा।
प्रचार का अहंकार प्रकृत-प्रचार का बाधक है। वही प्रकृत प्रचारक है जो अपने महत्व की बात भूलकर भी जबान पर नहीं लाता, और, शरीर द्वारा सत्य का आचरण करता है, मन से सत्य-चिंता में मुग्ध रहता है एवं मुख से मन के भावानुयायी सत्य के विषय में कहता है।
जहाँ देखोगे, कोई विश्वास के गर्व के साथ सत्य के विषय में कहता है, दया की बातें बोलते-बोलते आनंद एवं दीनता से अधीर हो पड़ता है, प्रेम सहित आवेगपूर्ण होकर सभी को पुकारता है, आलिंगन करता है और जिस मुहूर्त में उसके महत्व ही बात कोई कहता है, उसे स्वीकार नहीं करता, वरन दीन एवं म्लान होकर भग्न-हृदय की तरह हो जाता है--यह बिल्कुल सही है की उसके पास उज्जवल सत्य निश्चय ही है, और, उसके साधारण चरित्र में भी देखोगे, सत्य प्रस्फुटित हो रहा है।
तुम भक्तिरूपी तेल में ज्ञानरूपी बत्ती भींगोकर सत्यरूपी चिराग जलाओ, देखोगे कितने फतिंगे, कितने कीडे, कितने जानवर, कितने मनुष्यों ने तुम्हें किस प्रकार घेर लिया है।
जो सत् की ही चिंता करता है, सत् की ही याजन करता है, जो सत्य का ही भक्त है, वही है प्रकृत प्रचारक।
आदर्श में गहरा विश्वास नहीं रहने पर निष्ठा भी नहीं आती, भक्ति भी नहीं आती; और, भक्ति नहीं होने से अनुभूति ही क्या होगी, ज्ञान ही क्या होगा, और वह प्रचार ही क्या करेगा ?
प्रकृत सत्य-प्रचारक का अहंकार अपने आदर्श में रहता है और भण्ड प्रचारक का अहंकार आत्म-प्रचार में।
जिसे मंगल समझोगे, जिसे सत्य समझोगे, मनुष्य से उसे कहने के लिए हृदय व्याकुल हो उठेगा, मनुष्य चाहे तुम्हें जो भी क्यों न कहें, मन पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा, किंतु मनुष्य को सत्यमुखी देखकर आनंद होगा--तभी उसे प्रचार कहा जायेगा।
ठीक-ठीक विश्वास, निर्भरता एवं भक्ति नहीं रहने पर कोई कभी भी प्रचारक नहीं हो सकता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 15 November 2008

सत्यानुसरण 49

नाम-यश आत्मोन्नयन का घोर अन्तराय (बाधक) है।
तुम्हारी थोड़ी उन्नति होने से ही देखोगे किसी ने तुम्हें ठाकुर बना दिया है, कोई महापुरुष कहता है, कोई अवतार, कोई सद् गुरु इत्यादि कहता है; और फिर कोई शैतान, बदमाश, कोई व्यवसायी इत्यादि भी कहता है; सावधान! तुम इनमें से किसी की ओर नजर मत देना। तुम्हारे लिए ये सभी भूत हैं, नजर देने से ही गर्दन पर चढ़ बैठेंगे, उसे छुड़ाना भी महामुश्किल है। तुम अपने अनुसार काम किए जाओ, चाहे जो हो।
नाम-यश इत्यादि की आशा में अगर तुम्हारा मन भक्त का आचरण करता है, तब तो मन में कपटता छिपी हुई है--तत्क्षण उसे मारकर बाहर निकाल दो। तभी मंगल है, नहीं तो सब नष्ट हो जायेगा।
ठाकुर, अवतार किंवा भगवान् इत्यादि होने की साध मन में होते ही तुम निश्चय ही भण्ड बन जाओगे और मुंह से हजार कहने पर भी कार्य के रूप में कुछ भी नहीं कर सकोगे, यदि वैसी इच्छा रहे तो अभी त्यागो, नहीं तो अमंगल निश्चित है।
तुम जिस तरह प्रकृत होगे, प्रकृति तुम्हें उस तरह की उपाधि निश्चय देगी एवं तुम्हारे अन्दर वैसा अधिकार भी देंगी; इसे नित्य प्रत्यक्ष कर रहे हो; तो तुम्हें और क्या चाहिये ? प्राणपण से प्रकृत होने की चेष्टा करो। पढ़कर पास किए बिना क्या यूनिवर्सिटी किसी को उपाधि देती है?
भूलकर भी अपना प्रचार करने मत जाना या अपना प्रचार करने के लिए किसी से अनुरोध न करना-ऐसा करने से सभी तुमसे घृणा करेंगे और तुमसे दूर हट जायेंगे।
तुम यदि किसी सत्य को जानते हो और उसे यदि मंगलप्रद समझते हो, प्राणपण से उसके ही विषय में बोलो एवं सभी से जानने के लिये अनुरोध करो; समझने पर सभी तुम्हारी बात सुनेंगे एवं तुम्हारा अनुसरण करेंगे।
यदि तुमने सत्य देखा है, समझा है, तो तुम्हारे कायमनोवाक्य से वह प्रस्फुटित होगा ही। तुम जब तक उसमें खो नहीं जाते तब तक किसी भी तरह स्थिर नहीं रह सकोगे; सूर्य को क्या अन्धकार ढककर रख सकता है?
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 48

निर्भर करो, और साहस सहित अदम्य उत्साह से काम किये जाओ, लक्ष्य रखो, तुमसे तुम्हारा अपना और दूसरे का किसी प्रकार का अमंगल न हो। देखोगे, सौभाग्य-लक्ष्मी तुम्हारे घर में बँधी रहेगी।
कहा गया है, "वीर भोग्या वसुंधरा !" वह ठीक है; विश्वास, निर्भरता और आत्मत्याग, ये तीनों ही वीरत्व के लक्षण हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 14 November 2008

सत्यानुसरण 47

जो पहले कूद पड़ा है; जिसने पहले पथ दिखाया है, वही नेता है। नहीं तो केवल बातों से क्या नेता बना जा सकता है?
पहले दूसरों के लिये यथासर्वस्व ढालो, दस के लिये जान-प्राण दे दो और किसी का दोष कहकर दोष देखना भूल जाओ, सेवा में आत्महारा होओ, तभी नेता हो, तभी देश के हृदय हो, तभी देश के राजा हो। नहीं तो वे सब केवल बातों से नहीं होते।
यदि नेता बनना चाहते हो तो नेतृत्व का अहंकार त्याग करो, अपना गुणगान छोड़ दो, दूसरे के हित के लिये यथासर्वस्व दाँव पर लगा दो, और जो मंगल एवं सत्य हो स्वयं वही करके दिखाओ, और, सभी से प्रेम के साथ बोलो; देखोगे हजारों-हजार लोग तुम्हारा अनुसरण करेंगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 11 November 2008

सत्यानुसरण 46

सरल साधुता की तरह कोई चतुराई नहीं;--जो जैसा भी क्यों न हो, इस फंदे में पड़ेगा ही।
Honesty is the best policy (सरल साधुता ही है चरम कौशल)।
विनय के समान सम्मोहनकारी दूसरा कुछ भी नहीं।
प्रेम के समान आकर्षणकारी ही और क्या है ?
विश्वास के समान दूसरी सिद्धि नहीं।
ज्ञान के समान दूसरी दृष्टि नहीं।
आतंरिक दीनता के समान अहंकार को वश करने का दूसरा कुछ भी नहीं।
सद् गुरु के आदेश पालन के समान दूसरा मंत्र क्या है ?
चलो, आगे बढो, रास्ते को सोचकर ही क्लांत मत हो जाओ, नहीं तो जा नहीं पाओगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 45

अहंकार से ही आसक्ति आती है; आसक्ति से आती है अज्ञानता; और अज्ञानता ही है दुःख।
संदेह से ही अविश्वास आता है; और, अविश्वास ही है जड़त्व।
आलस्य से ही मूढता आती है; और मूढ़ता ही है अज्ञानता।
बाधाप्राप्त काम ही है क्रोध; और, क्रोध ही है हिंसा का बन्धु।
स्वार्थबुद्धि की आत्मतुष्टि का अभिप्राय ही है लोभ; और, यह लोभ ही है आसक्ति। जो निर्लोभ है वही है अनासक्त।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 10 November 2008

सत्यानुसरण 44

अहंकार आसक्ति लाता है; आसक्ति ला देती है स्वार्थबुद्धि; स्वार्थबुद्धि लाती है काम; काम से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है; और, क्रोध से ही आती है हिंसा।
भक्ति ला देती है ज्ञान; ज्ञान से होता है सर्वभूतों में आत्मबोध; सर्वभूतों में आत्मबोध होने से ही आती है अहिंसा; और अहिंसा से ही आता है प्रेम। तुम जितना भर इनमें से जिस एक किसी का अधिकारी होगे, उतना ही भर इन सभी के अधिकारी होगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 43

अहंकार जितना घना होता है, अज्ञानता उतनी अधिक होती है; और अहं जितना पतला होता है, ज्ञान उतना उज्ज्वल होता है।
संदेह अविश्वास का दूत है और अविश्वास ही है अज्ञानता का आश्रय।
संदेह आने पर तत्क्षण उसके निराकरण की चेष्टा करो, और सत्-चिंता में निमग्न होओ --ज्ञान के अधिकारी होगे, और आनंद पाओगे।
असत् -चिंता से कुज्ञान या अज्ञान अथवा मोह जन्म लेता है, उसका परिहार करो, दुःख से बचोगे।
तुम असत् में जितना ही आसक्त होगे उतना ही स्वार्थबुद्धिसम्पन्न होगे, और उतना ही कुज्ञान या मोह से आच्छन्न हो पड़ोगे; और रोग, शोक, दारिद्र्य, मृत्यु इत्यादि यंत्रनाएँ तुम पर उतना ही आधिपत्य करेंगी, यह निश्चित है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 8 November 2008

सत्यानुसरण 42

अनुभूति द्वारा जो जाना जाय वही ज्ञान है।
जानने को ही वेद कहते हैं और वेद अखण्ड है।
जो जितना जानता है वह उतना ही भर वेदवित् है।
ज्ञान प्रहेलिका को ध्वंस कर मनुष्य को प्रकृत चक्षु प्रदान करता है।
ज्ञान वस्तु के स्वरूप को निर्देश करता है और वस्तु के जिस भाव को जान लेने पर जानना बाकी नहीं रहता, वही उसका स्वरूप है।
भक्ति चित्त को सत् में संलग्न करने की चेष्टा करती है, और उससे जो उपलब्धि होती है वही है ज्ञान।
अज्ञानता मनुष्य को उद्विग्न करती है, ज्ञान मनुष्य को शांत करता है। अज्ञानता ही दुःख का कारण है और ज्ञान ही आनंद है।
तुम जितने ज्ञान का अधिकारी होगे, उतना भर शांत होगे। तुम्हारा ज्ञान जैसा होगा, स्वच्छंद रूप से रहने की तुम्हारी क्षमता भी वैसी होगी।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 7 November 2008

सत्यानुसरण 41

नकली भक्ति मोटा-अहंकार-युक्त होती है, असली भक्ति होती है अहंकार-मुक्त अर्थात् खूब पतला अहंकार-युक्त।
नकली भक्ति-युक्त मनुष्य उपदेश नहीं ले सकता, उपदेष्टा के रूप में उपदेश केवल दे सकता है; इसीलिये कोई उसे यदि उपदेश देता है तो उसके चेहरे पर क्रोध के लक्षण, विरक्ति के लक्षण, संग छोड़ने की चेष्टा इत्यादि लक्षण प्रायः स्पष्ट प्रकाश पाते हैं।
असली भक्ति-युक्त मनुष्य उपदेष्टा का आसन लेने में बिल्कुल ही गैरराजी होता है। यदि उपदेश पाता है, उसके चेहरे पर आनंद के चिह्न झलकने लगते हैं।
अविश्वासी एवं बहुनैष्ठिक के हृदय में भक्ति आ ही नहीं सकती।
भक्ति एक के लिए बहुत से प्रेम करती है और आसक्ति बहुत के लिये एक से प्रेम करती है।
आसक्ति में स्वार्थ से आत्मतुष्टि होती है और भक्ति में परार्थ से आत्मतुष्टि होती है।
भक्ति की अनुरक्ति सत् में है और आसक्ति का नशा स्वार्थ में, अहं में है।
आसक्ति काम की पत्नी है और भक्ति प्रेम की छोटी बहन है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 6 November 2008

सत्यानुसरण 40

थोड़ा रो लेने से ही या नृत्य-गीतादि में उत्तेजित होकर उछल-कूद करने से ही जो भक्ति हुई, ऐसी बात नहीं है; सामयिक भावोन्मत्ततादि भक्त के लक्षण नहीं। भक्त के चरित्र में पतला अहंकार का चिह्न, विश्वास का चिह्न, सत्-चिंता का चिह्न, सद्व्यवहार का चिह्न एवं उदारता इत्यादि के चिह्न कुछ-न-कुछ रहेंगे ही, नहीं तो भक्ति नहीं आयी।
विश्वास नहीं आने पर निष्ठा नहीं आती और निष्ठा के बिना भक्ति रह नहीं सकती।
दुर्बल भावोन्मत्तता अनेक समय भक्ति जैसी दिखायी पड़ती है, वहाँ निष्ठा नहीं है और भक्ति का चरित्रगत लक्षण भी नहीं है।
जिसके हृदय में भक्ति है वह समझ नहीं पाता कि वह भक्त है और दुर्बल, निष्ठाहीन केवल भाव-प्रवण, मोटा अहंयुक्त हृदय सोचता है--मैं खूब भक्त हूँ।
अश्रु, पुलक, स्वेद, कम्पन होने से ही जो वहाँ भक्ति आयी है, ऐसी बात नहीं, भक्ति के इन सब के साथ अपना स्वधर्म चरित्रगत लक्षण रहेगा ही।
अश्रु, पुलक, स्वेद, कम्पन इत्यादि भाव के लक्षण हैं; वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं।
भक्ति के चरित्रगत लक्षणों के साथ यदि उस भाव के वे लक्षण प्रकाश पायें तभी वे सात्विक भाव के लक्षण हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 5 November 2008

सत्यानुसरण 39

विषय में मन संलग्न रहने को आसक्ति कहते हैं और सत् में संलग्न रहने को भक्ति कहते हैं।
प्रेम भक्ति की ही क्रमोन्नति है। भक्ति का गाढ़त्व ही प्रेम है। अहंकार जहाँ जितना पतला है भक्ति का स्थान भी वहाँ उतना ही अधिक है।
भक्ति बिना साधना में सफल होने का उपाय कहाँ है? भक्ति ही सिद्धि ला दे सकती है।
विश्वास जिस तरह अन्धा नहीं होता, भक्ति भी उसी तरह मूढ़ नहीं होती।
भक्ति में किसी भी समय किसी तरह की दुर्बलता नहीं।
क्लीवत्व, दुर्बलता बहुधा भक्ति का वेश पहन कर खड़े होते हैं, उनसे सावधान रहना।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 3 November 2008

सत्यानुसरण 38

विश्वास विरुद्ध भाव द्वारा आक्रांत होने पर ही संदेह आता है।
विश्वास संदेह द्वारा अभिभूत होने पर मन जब उसे ही समर्थन करता है तभी अवसाद आता है।
प्रतिकूल युक्ति त्याग कर विश्वास के अनुकूल युक्ति के श्रवण एवं मनन से संदेह दूरीभूत होता है, अवसाद नहीं रहता।
विश्वास प़क जाने पर कोई भी विरुद्ध भाव उसे हिला नहीं सकता।
प्रकृत विश्वासी को संदेह ही क्या करेगा या अवसाद ही क्या करेगा।
संदेह को प्रश्रय देने से वह घूण की तरह मन पर आक्रमण करता है, अंत में अविश्वासरुपी जीर्णता की चरममलिन दशा को प्राप्त होता है।
संदेह का निराकरण कर विश्वास की स्थापना करना ही है ज्ञानप्राप्ति।
तुम यदि पक्के विश्वासी होओ, विश्वास अनुयायी भाव के सिवाय जगत् का कोई विरुद्ध भाव, कोई मन्त्र, कोई शक्ति तुम्हें अभिभूत या जादू नहीं कर सकेगी, निश्चय जानो।
तुम्हारे मन से जिस परिमाण में विश्वास हटेगा, जगत् तुम पर उसी परिमाण में संदेह करेगा या अविश्वास करेगा एवं दुर्दशा भी तुम पर उसी परिमाण में आक्रमण करेगी, यह निश्चित है।
अविश्वास क्षेत्र दुर्दशा या दुर्गति का राजत्व है।
विश्वास-क्षेत्र बड़ा ही उर्वर है। सावधान, अविश्वासरूपी जंगल-झाड़ के संदेहरूपी अंकुर निकलते देखते ही तत्क्षण उसे उखाड़ फेंको, नहीं तो भक्तिरूपी अमृत-वृक्ष बढ़ नहीं सकेगा।
श्रद्धा और विश्वास दोनों भाई हैं, एक के आते ही दूसरा भी आता है।
संदेह का निराकरण करो, विश्वास के सिंहासन पर भक्ति को बैठाओ, हृदय में धर्मराज्य संस्थापित हो।
सत् में निरवच्छिन्न संलग्न रहने की चेष्टा को ही भक्ति कहते हैं।
भक्त ही प्रकृत ज्ञानी है, भक्तिविहीन ज्ञान वाचक ज्ञान मात्र है।
तुम सोअहं ही बोलो और ब्रह्मास्मि ही बोलो, किंतु भक्ति अवलंबन करो, तभी वह भाव तुम्हें अवलंबन करेगा; नहीं तो किसी भी तरह कुछ नहीं होगा।
विश्वास जैसा है, भक्ति उसी तरह आएगी एवं ज्ञान भी होगा तदनुयायी।
पहले निरहंकार होने की चेष्टा करो; बाद में 'सोअहं' कहो, नहीं तो 'सोअहं' तुम्हें और भी अध:पतन में ले जा सकता है।
तुम यदि सत् चिंता में संयुक्त रहने की चेष्टा करो, तुम्हारी चिंता, आचार, व्यवहार इत्यादि उदार एवं सत्य होते रहेंगे और वे सब भक्त के लक्षण हैं।
संकीर्णता के निकट जाने से मन संकीर्ण हो जाता है एवं विस्तृति के निकट जाने से मन विस्तृति लाभ करता है; उसी प्रकार भक्त के निकट जाने से मन उदार होता है और जितनी उदारता है उतनी ही शान्ति।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 1 November 2008

सत्यानुसरण 37

जैसे आदर्श में तुम विश्वास स्थापन करोगे, तुम्हारा स्वभाव भी उसी तरह गठित होगा और तुम्हारा दर्शन भी तद्रूप होगा।
विश्वासी को अनुसरण करो, प्रेम करो, तुम में भी विश्वास आयेगा।
मुझे विश्वास नहीं है--इस भाव के अनुसरण से मनुष्य विश्वासहीन हो जाता है।
विश्वास नहीं हो, ऐसा मनुष्य नहीं। जिसका विश्वास जितना गहरा है, जितना उच्च है, उसका मन उतना उच्च है, जीवन उतना ही गहरा है।
जो सत् में विश्वासी है वह सत् होगा ही और असत् में विश्वासी असत् हो जाता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण