Saturday, 11 October 2008

सत्यानुसरण 21

निष्ठा रखो, किंतु जिद्दी मत बनो।
साधु न सजो, साधु होने की चेष्टा करो।
किसी महापुरुष के साथ तुम अपनी तुलना न करो; किंतु सर्वदा उनका अनुसरण करो।
यदि प्रेम रहे तब पराये को "अपना" कहो, किंतु स्वार्थ न रखो।
प्रेम की बात बोलने से पहले प्रेम करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 10 October 2008

सत्यानुसरण 20

हृदय दो, कभी भी हटना नहीं पड़ेगा।
निर्भर करो, कभी भी भय नहीं पाओगे।
विश्वास करो, अन्तर के अधिकारी बनोगे।
साहस दो, किंतु शंका जगा देने की चेष्टा करो।
धैर्य धरो, विपद कट जायेगी।
अहंकार न करो, जगत में हीन होकर रहना न पड़ेगा।
किसी के द्वारा दोषी बनाने के पहले ही कातर भाव से अपना दोष स्वीकार करो, मुक्त कलंक होगे, जगत् के स्नेह के पात्र बनोगे।
संयत होओ, किंतु निर्भीक बनो।
सरल बनो, किंतु बेवकूफ न होओ।
विनीत होओ, उसका अर्थ यह नहीं कि दुर्बल-हृदय बनो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 19

एक की चाह करते समय दस की चाह मत कर बैठो, एक का ही जिससे चरम हो वही करो, सब कुछ पाओगे।
जीवन को जिस भाव से बलि दोगे, निश्चय उस प्रकार का जीवन लाभ करोगे।
जो कोई प्रेम के लिए जीवन दान करता है वह प्रेम का जीवन लाभ करता है।
उद्देश्य में अनुप्राणित होओ और प्रशांतचित्त से समस्त सहन करो, तभी तुम्हारा उद्देश्य सफल होगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 7 October 2008

सत्यानुसरण 18

जो ख्याल विवेक का अनुचर है उसी का अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी बनोगे।
विस्तार में अस्तित्व खो दो, किंतु बूझो नहीं। विस्तार ही है जीवन, विस्तार ही है प्रेम।
जो कर्म मन का प्रसारण ले आता है वही सुकर्म है और जिससे मन में संस्कार, कट्टरता इत्यादि आते हैं, फलस्वरूप, जिससे मन संकीर्ण होता है वही कुकर्म है।
जिस कर्म को मनुष्य के सामने कहने से मुँह पर कालिमा लगती है, उसे करने मत जाओ। जहाँ गोपनता है, घृणा-लज्जा-भय से वहीं दुर्बलता है, वहीं है पाप।
जो साधना करने से हृदय में प्रेम आता है, वही करो और जिससे क्रूरता, कट्टरता, हिंसा आती है, वह फिलहाल लाभजनक हो तो भी उसके नजदीक मत जाओ।
तुमने यदि ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिससे चन्द्र-सूर्य को कक्षच्युत कर सकते हो, पृथ्वी को तोड़कर टुकडा-टुकडा कर सकते हो या सभी को ऐश्वर्यशाली कर दे सकते हो, किंतु यदि हृदय में प्रेम नहीं रहे तो तुम्हारा कुछ हुआ ही नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 4 October 2008

सत्यानुसरण 17

स्पष्टवादी होओ, किंतु मिष्टभाषी बनो।
बोलने में विवेचना करो, किंतु बोलकर विमुख मत होओ।
यदि भूल बोल चुके हो, सावधान होओ, भूल नहीं करो।
सत्य बोलो, किंतु संहार न लाओ।
सत् बात बोलना अच्छा है, किंतु सोचना, अनुभव करना और भी अच्छा है।
सत् बात बोलने की अपेक्षा सत् बात बोलना अच्छा है निश्चय, किंतु बोलने के साथ कार्य करना एवं अनुभव न रहा तो क्या हुआ?-- बेहला, वीणा जिस तरह वादक के अनुग्रह से बजती अच्छी है, किंतु वे स्वयं कुछ अनुभव नहीं कर सकती।
जो अनुभूति की खूब गपें मारता है पर उसके लक्षण प्रकाशित नहीं होते, उसकी सभी गपें कल्पनामात्र या आडम्बर हैं।
जितना डुबोगे उतना ही बेमालूम होओगे।
जैसे अनार पकते ही फट जाता है, तुम्हारे अन्तर में सत् भाव परिपक्व होते ही स्वयं फट जायेगा--तुम्हें मुँह से उसे व्यक्त करना न होगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 2 October 2008

सत्यानुसरण 16

हँसो, किंतु विद्रुप में नहीं।
रोओ, किंतु आसक्ति में नहीं, प्यार में, प्रेम में।
बोलो, किंतु आत्मप्रशंसा या ख्याति विस्तार के लिए नहीं।
तुम्हारे चरित्र के किसी भी उदाहरण से यदि किसी का मंगल हो तो उससे उसको वंचित मत रखो।
तुम्हारा सत् स्वभाव कर्म में फूट निकले, किंतु अपनी भाषा में व्यक्त न हो, नजर रखो।
सत् में अपनी आसक्ति संलग्न करो, अज्ञात भाव से सत् बनोगे। तुम अपने भाव से सत्-चिंता में निमग्न होओ, तुम्हारे अनुयायी भाव स्वयं फूट निकलेंगे।
असत्-चिंता जिस प्रकार दृष्टि में, वाक्य में, आचरण में, व्यवहार इत्यादि में व्यक्त हो जाती है, सत्-चिंता भी उसी प्रकार व्यक्त हो जाती है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 15

जितने दिनों तक तुम्हारे शरीर और मन में व्यथा लगती है उतने दिनों तक तुम एक चींटी की भी व्यथा के निराकरण की ओर चेष्टा रखो और ऐसा यदि नहीं करते हो तो तुमसे हीन और कौन है ?
अपने गाल पर थप्पड़ लगने पर यदि कह सको, कौन किसको मारता है, तभी दूसरे के समय बोलो--अच्छा ही है। खबरदार, स्वयं यदि ऐसा नहीं सोच सको तो दूसरे के समय बोलने मत जाओ!
यदि अपने कष्ट के समय संसारी बनते हो तो दूसरे के समय ब्रह्मज्ञानी मत बनो। वरन अपने दुःख के समय ब्रह्मज्ञानी बनो और दूसरे के समय संसारी, ऐसा कृत्रिम-भाव भी अच्छा है।
यदि मनुष्य हो तो अपने दुःख में हँसो और दूसरे के दुःख में रोओ।
अपनी मृत्यु यदि नापसंद करते हो तो कभी भी किसी को 'मरो' न कहो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण