Tuesday, 7 October 2008

सत्यानुसरण 18

जो ख्याल विवेक का अनुचर है उसी का अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी बनोगे।
विस्तार में अस्तित्व खो दो, किंतु बूझो नहीं। विस्तार ही है जीवन, विस्तार ही है प्रेम।
जो कर्म मन का प्रसारण ले आता है वही सुकर्म है और जिससे मन में संस्कार, कट्टरता इत्यादि आते हैं, फलस्वरूप, जिससे मन संकीर्ण होता है वही कुकर्म है।
जिस कर्म को मनुष्य के सामने कहने से मुँह पर कालिमा लगती है, उसे करने मत जाओ। जहाँ गोपनता है, घृणा-लज्जा-भय से वहीं दुर्बलता है, वहीं है पाप।
जो साधना करने से हृदय में प्रेम आता है, वही करो और जिससे क्रूरता, कट्टरता, हिंसा आती है, वह फिलहाल लाभजनक हो तो भी उसके नजदीक मत जाओ।
तुमने यदि ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिससे चन्द्र-सूर्य को कक्षच्युत कर सकते हो, पृथ्वी को तोड़कर टुकडा-टुकडा कर सकते हो या सभी को ऐश्वर्यशाली कर दे सकते हो, किंतु यदि हृदय में प्रेम नहीं रहे तो तुम्हारा कुछ हुआ ही नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

No comments: