Saturday, 11 October 2008

सत्यानुसरण 22

अन्धा होना दुर्भाग्य की बात है ठीक ही, किंतु यष्टि-च्युत (लाठी खोना) होना और भी दुर्भाग्य है; कारण यष्टि ही आँखों का बहुत-सा काम करती है।
स्कूल जाने से ही किसी को छात्र नहीं कहते, और मंत्र लेने से ही किसी को शिष्य नहीं कहते, हृदय को शिक्षक या गुरु के आदेश पालन के लिए सर्वदा उन्मुक्त रखना चाहिए। अन्तर में स्थिर विश्वास चाहिए। वे जो भी बोल देंगे वही करना होगा, बिना आपत्ति के, बिना हिचकिचाहट के, बल्कि परम आनंद से।
जिस छात्र या शिष्य ने प्राणपण से आनंद सहित गुरु का आदेश पालन किया है वह कभी भी विफल नहीं हुआ।
शिष्य का कर्तव्य है प्राणपण से गुरु के आदेश को कार्य में परिणत करना, गुरु को लक्ष्य करके चलना।
जभी देखोगे, गुरु के आदेश से शिष्य को आनंद हुआ है, मुख प्रफुल्लित हो उठा है, तभी समझोगे कि उसके हृदय में शक्ति आयी है !
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

1 comment:

makrand said...

bahut sunder lekh
badhai
regards