Monday, 13 October 2008

सत्यानुसरण 24

तुम गुरु या सत् में चित्त संलग्न करके आत्मोन्नयन में यत्नवान होओ, दूसरे तुम्हारे विषय में क्या बोलते हैं-देखने जाकर आकृष्ट न हो पडो- ऐसा करने से आसक्त हो पड़ोगे, आत्मोन्नयन नहीं होगा।
स्वार्थबुद्धि बहुधा आदर्श पर दोषारोपण करती है, संदेह ला देती है, अविश्वास ला देती है। स्वार्थबुद्धिवश आदर्श में दोष मत देखो, संदेह न करो, अविश्वास न करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा।
मुक्तस्वार्थ होकर आदर्श में दोष देखने पर उसका अनुसरण मत करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा!
आदर्श के दोष हैं-मूढ़ अहंकार, स्वार्थ चिंता, अप्रेम। अनुसरणकारी के दोष हैं-संदेह, अविश्वास, स्वार्थबुद्धि।
जो प्रेम के अधिकारी हैं, निःसंदेह चित्त से उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो छल-बल-कौशल से चाहे जैसे भी क्यों न हो सर्वभूतों की मंगल चेष्टा में यत्नवान हैं, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो किसी भी प्रकार से किसी को भी दुःख नहीं देते, पर असत् को भी प्रश्रय नहीं देते, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

No comments: