Friday, 17 October 2008

सत्यानुसरण 29

दान करो, किंतु दीन होकर, बिना प्रत्याशा के।
तुम्हारे अन्तर में दया का द्वार खुल जाये।
दया के हिसाब से किया गया दान अहंकार का ही परिपोषक होता है।
जो कातरभाव से तुम्हारा दान ग्रहण करते हैं, गुरुरूप में वे तुम्हारे हृदय में दयाभाव का उद्वोधन करते हैं; अतएव कृतज्ञ होओ !
जिसे दान दोगे, उसका दुःख अनुभव कर सहानुभूति प्रकाश करो, साहस दो, सांत्वना दो; बाद में साध्यानुसार यत्न के साथ दो; प्रेम के अधिकारी होओगे- दान सिद्ध होगा।
दान करके प्रकाश जितना न करो उतना ही अच्छा-अहंकार से बचोगे।
याचक को लौटाओ नहीं। अर्थ, नहीं तो सहानुभूति, साहस, सांत्वना, मधुर बात, जो भी एक, दो-- हृदय कोमल होगा।
दूसरे की मंगल-कामना ही अपने मंगल की प्रसूति हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

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