Thursday, 23 October 2008

सत्यानुसरण 30

पड़े-पड़े मरने से चलकर मरना अच्छा है।
जो बोलने में कम, काम में अधिक है, वही है प्रथम श्रेणी का कर्मी; जो जैसा बोलता है, वैसा ही करता है, वह है मध्यम श्रेणी का कर्मी; जो बोलता अधिक है, करता कम है, वह है तृतीय श्रेणी का कर्मी; और जिसे बोलने में भी आलस्य, करने में भी आलस्य, वही है अधम।
दौड़ कर जाओ, किंतु हाँफ न जाना; और ठोकर खाकर जिसमें गिर न पडो, दृष्टि रखो।
जिस काम में तुम्हें विरक्ति और क्रोध आ रहा है, निश्चय जानो वह व्यर्थ होने को है।
कार्य साधन के समय उससे जो विपदा आएगी, उसके लिए राजी रहो; विरक्त या अधीर न होना, सफलता तुम्हारी दासी होगी।
चेष्टा करो, दुःख न करो, कातर मत होओ, सफलता आएगी ही।
कार्यकुशल का चिह्न दुःख का प्रलाप नहीं।
उत्तेजित मस्तिष्क और वृथा आडम्बरयुक्त चिंता-दोनों ही असिद्धि के लक्षण हैं।
विपदा को धोखा देकर और परास्त कर सफलता-लक्ष्मी लाभ करो; विपदा जिसमें तुम्हें सफलता से वंचित न करे।
सुख अथवा दुःख यदि तुम्हारा गतिरोध नहीं करे तब तुम निश्चय गंतव्य पर पहुँचोगे, संदेह नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

No comments: