खबरदार, किसी को हुक्म देकर अथवा नौकर-चाकर द्वारा गुरु की सेवा-सुश्रूषा कराने न जाना--प्रसाद से वंचित मत होना।
माँ अपने हाथों से बच्चों का यत्न करती है, इसीलिये वहाँ पर अश्रद्धा नहीं आती-इसीसे तो इतना प्यार है !
अपने हाथों से गुरुसेवा करने से अंहकार पतला होता है, अभिमान दूर होता है और प्रेम आता है।
गुरु ही है भगवान् का साकार मूर्ति, और वे ही हैं absolute (अखंड)।
गुरु को अपना समझना चाहिए--माँ, बाप, पुत्र इत्यादि घर के लोगों का ख्याल करते समय जिसमें उनका भी चेहरा याद आये।
उनकी भर्त्सना का भय करने की अपेक्षा प्रेम का भय करना ही अच्छा है; मैं यदि अन्याय करूँ तो उनके प्राण में व्यथा लगेगी।
सब समय उन्हें अनुसरण करने की चेष्टा करो; वे जो भी कहें यत्न के साथ उनका पालन कर अभ्यास में चरित्रगत करने की नियत चेष्टा करो; और वही साधना है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण
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