Tuesday, 30 September 2008

सत्यानुसरण 14

आगे बढ़ो, किंतु माप कर देखने न जाओ कि कितनी दूर बढ़े हो; ऐसा करने से पुनः पीछे रह जाओगे।
अनुभव करो, किंतु अभिभूत मत हो पडो, अन्यथा चल नहीं पाओगे। यदि अभिभूत होना है तो इश्वरप्रेम में होओ।
यथाशक्ति सेवा करो, किंतु सावधान, सेवा लेने की जिसमें इच्छा न जगे।
अनुरोध करो, किंतु हुक्म देने मत जाओ।
कभी भी निंदा न करो, किंतु असत्य को प्रश्रय मत दो।
धीर बनो, किंतु आलसी, दीर्घसूत्री मत बनो।
क्षिप्र बनो, किंतु अधीर होकर विरक्ति को बुलाकर सब कुछ नष्ट मत कर दो।
वीर बनो, किंतु हिंसक होकर बाघ-भालू जैसा न बन जाओ।
स्थिरप्रतिज्ञ होओ, जिद्दी मत बनो।
तुम स्वयं सहन करो, किंतु जो नहीं कर सकता है उसकी सहायता करो, घृणा मत करो, सहानुभूति दिखलाओ, साहस दो।
स्वयं अपनी प्रशंसा करने में कृपण बनो, किंतु दूसरे के समय दाता बनो।
जिस पर क्रुद्ध हुए हो, पहले उसे आलिंगन करो, अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रण दो, डाली भेजो एवं हृदय खोलकर जब तक बातचीत नहीं करते तब तक अनुताप सहित उसके मंगल के लिए परमपिता से प्रार्थना करो; क्योंकि विद्वेष आते ही क्रमश: तुम संकीर्ण हो जाओगे और संकीर्णता ही पाप है।
यदि कोई तुम पर कभी भी अन्याय करे, और नितांत ही उसका प्रतिशोध लेना हो तो तुम उसके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वह अनुपप्त हो; ऐसा प्रतिशोध और नहीं है- अनुताप है तुषानल। उसमें दोनों का मंगल है।
बंधुत्व खारिज न करो अन्यथा सजा में संवेदना एवं सांत्वना नहीं पाओगे।
तुम्हारा बन्धु अगर असत भी हो, उसे न त्यागो वरन प्रयोजन होने पर उसका संग बंद करो, किंतु अन्तर में श्रद्धा रखकर विपत्ति-आपत्ति में कायमनोवाक्य से सहायता करो और अनुतप्त होने पर आलिंगन करो।
तुम्हारा बन्धु अगर कुपथ पर जाता है और तुम यदि उसे लौटाने की चेष्टा न करो या त्याग करो तो उसकी सजा तुम्हें भी नहीं छोड़ेगी।
बन्धु की कुत्सा न रटो या किसी भी तरह दूसरे के निकट निंदा न करो; किंतु उसका अर्थ यह नहीं कि उसके निकट उसकी किसी बुराई को प्रश्रय दो।
बन्धु के निकट उद्धत न होओ किंतु प्रेम के साथ अभिमान से उस पर शासन करो।
बन्धु से कुछ प्रत्याशा न रखो किंतु जो पाओ प्रेम सहित ग्रहण करो। कुछ दो तो पाने की आशा न रखो, किंतु कुछ पाने पर देने की चेष्टा करो।

--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 28 September 2008

सत्यानुसरण 13

काम करते जाओ, किंतु आबद्ध न होना। यदि विषय के परिवर्तन से तुम्हारे हृदय में परिवर्तन आ रहा है समझ सको और वह परिवर्तन तुम्हारे लिए वांछनीय नहीं है, तो ठीक जानो तुम आबद्ध हुए हो।
किसी प्रकार के संस्कार में ही आबद्ध मत रहो, एकमात्र परमपुरुष के संस्कार को छोड़कर और सभी बंधन हैं।
तुम्हारे दर्शन की, ज्ञान की दूरी जितनी है, अदृष्ट (भाग्य) ठीक उसके ही आगे है; देख नहीं पाते हो, जान नहीं पाते हो, इसलिए अदृष्ट है।
अपने शैतान अहंकारी अहमक "मैं" को निकाल बाहर करो; परमपिता की इच्छा पर तुम चलो, अदृष्ट कुछ भी नहीं कर सकेगा। परमपिता की इच्छा ही है अदृष्ट।
अपनी सभी अवस्थाओं में उनकी मंगल-इच्छा समझने की चेष्टा करो। देखना, कातर नहीं होगे, वरण हृदय में सबलता आयेगी, दुःख में भी आनंद पाओगे।
काम करते जाओ, अदृष्ट सोचकर हताश मत हो जाओ; आलसी मत बनो, जैसा काम करोगे तुम्हारे अदृष्ट वैसे ही बनकर दृष्ट होंगे। सत् कर्मी का कभी भी अकल्याण नहीं होता। चाहे एक दिन पहले या पीछे।
परमपिता की ओर देखकर काम करते जाओ। उनकी इच्छा ही है अदृष्ट; उसे छोड़कर और एक अदृष्ट-फदृष्ट बनाकर बेवकूफ बनकर बैठे मत रहो। बहुत से लोग अदृष्ट में नहीं हैं, यह सोचकर पतवार छोड़कर बैठे रहते हैं, अपिच निर्भरता भी नहीं, अंत में सारा जीवन दुर्दशा में काटते हैं, यह सब बेवकूफी है।
तुम्हारा 'मैंपन' जाते ही अदृष्ट ख़त्म हुआ, दर्शन भी नहीं, अदृष्ट भी नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 27 September 2008

सत्यानुसरण 12

तुम दूसरे से जैसा पाने की इच्छा रखते हो, दूसरे को वैसे ही देने की चेष्टा करो--ऐसा समझ कर चलना ही यथेष्ट है--स्वयं ही सभी तुम्हें पसंद करेंगे, प्यार करेंगे।
स्वयं ठीक रहकर सभी को सत् भाव से खुश करने की चेष्टा करो, देखोगे, सभी तुम्हें खुश करने की चेष्टा कर रहे हैं। सावधान, निजत्व खोकर किसी को खुश करने नहीं जाओ अन्यथा तुम्हारी दुर्गति की सीमा नहीं रहेगी।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 11

अपना दोष जानकर भी यदि तुम उसे त्याग नहीं सकते तो किसी भी तरह उसका समर्थन कर दूसरे का सर्वनाश न करो।
तुम यदि सत् बनो, तुम्हारे देखा-देखी हजार-हजार लोग सत् हो जायेंगे। और यदि असत् बनो, तुम्हारी दुर्दशा में संवेदना प्रकाश करने वाला कोई भी नहीं रहेगा; कारण, असत् होकर तुमने अपने चतुर्दिक को असत् बना डाला है।
तुम ठीक-ठीक समझ लो कि तुम अपने, अपने परिवार के, दश एवं देश के वर्त्तमान और भविष्य के लिये उत्तरदायी हो।
नाम-यश की आशा में कोई काम करने जाना ठीक नहीं। किंतु कोई भी काम निःस्वार्थ भाव से करने पर ही कार्य के अनुरूप नाम-यश तुम्हारी सेवा करेंगे ही।
अपने लिये जो भी किया जाय वही है निष्काम। किसी के लिये कुछ नहीं चाहने को ही निष्काम कहते हैं-केवल ऐसी बात नहीं है।
दे दो, अपने लिये कुछ मत चाहो, देखोगे, सभी तुम्हारे अपने होते जा रहे हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 25 September 2008

सत्यानुसरण 10

सत्यदर्शी का आश्रय लेकर स्वाधीन भाव से सोचो एवं विनय सहित स्वाधीन मत प्रकाश करो। पुस्तक पढ़कर पुस्तक मत बन जाओ, उसके essence (सार) को मज्जागत करने की चेष्टा करो। Pull the husk to draw the seed (बीज प्राप्त करने के लिए भूसी को अलग करो )।
ऊपर-ऊपर देखकर ही किसी चीज को न छोड़ो या किसी प्रकार का मत प्रकाश न करो। किसी चीज का शेष देखे बिना उसके सम्बन्ध में ज्ञान ही नहीं होता है और बिना जाने तुम उसके विषय में क्या मत प्रकाश करोगे ?
जो कुछ क्यों न करो, उसके अन्दर सत्य देखने की चेष्टा करो। सत्य देखने का अर्थ ही है उसके आदि-अंत को जानना और वही है ज्ञान।
जो तुम नहीं जानते हो, ऐसे विषय में लोगों को उपदेश देने मत जाओ।

Wednesday, 24 September 2008

सत्यानुसरण 9

यदि परीक्षक बनकर अहंकार सहित सदगुरु अथवा साधुगुरु की परीक्षा करने जाओगे तो तुम उनमें अपने को ही देखोगे, ठगे जाओगे।
सदगुरु की परीक्षा करने के लिये उनके निकट संकीर्ण-संस्कारविहीन हो प्रेम का हृदय लेकर, दीन एवं जहाँ तक सम्भव हो निरहंकार होकर जाने से उनकी दया से कोई संतुष्ट हो सकता है।
उन्हें अहं की कसौटी पर कसा नहीं जाता, किंतु वे प्रकृत दीनतारूपी भेड़े के सींग पर खंड-विखंड हो जाते हैं।
हीरा जिस तरह कोयला इत्यादि गन्दी चीजों में रहता है, उत्तम रूप से परिष्कार किए बिना उसकी ज्योति नहीं निकलती, वे भी उसी प्रकार संसार में अति साधारण जीव की तरह रहते हैं, केवल प्रेम के प्रक्षालन से ही उनकी दीप्ति से जगत उद्भासित होता है। प्रेमी ही उन्हें धर सकता है। प्रेमी का संग करो, सत्संग करो, वे स्वयं प्रकट होंगे।
अहंकारी की परीक्षा अहंकारी ही कर सकता है। गलित-अहं को वह कैसे जान सकता है ? उसके लिए एक किंभूतकिमाकार (अदभूत) लगेगा-- जिस तरह बज्रमूर्ख के सामने महापण्डित।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 8

यदि मंगल चाहते हो तो ज्ञानाभिमान छोड़ो, सभी की बातें सुनो और वही करो जो तुम्हारे हृदय के विस्तार में सहायता करे !
ज्ञानाभिमान ज्ञान का जितना अन्तराय यानि बाधक है उतना रिपु नहीं।
यदि शिक्षा देना चाहते हो तो कभी भी शिक्षक बनना मत चाहो। मैं शिक्षक हूँ, यह अंहकार ही किसी को सीखने नहीं देता।
अहं को जितना दूर रखोगे तुम्हारे ज्ञान या दर्शन की दूरी उतनी ही विस्तृत होगी।
अहं जब गल जाता हैं, जीव तभी सर्वगुणसंपन्न निर्गुण हो जाता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण