Friday, 31 October 2008

सत्यानुसरण 36

जिसका विश्वास जितना कम है वह उतना undeveloped (अविकसित) है, बुद्धि उतनी कम तीक्ष्ण है।
तुम पंडित हो सकते हो, किंतु यदि अविश्वासी होओ, तब तुम निश्चय ग्रामोफोन के रेकार्ड अथवा भाषावाही बैल की तरह हो।
जिसका विश्वास पक्का नहीं उसे अनुभूति नहीं; और जिसे अनुभूति नहीं, वह फ़िर पंडित कैसा ?
जिसकी अनुभूति जितनी है, उसका दर्शन, ज्ञान भी उतना है और ज्ञान में ही है विश्वास की दृढता।
यदि विश्वास न करो, तुम देख भी नहीं सकते, अनुभव भी नहीं कर सकते। और वैसा देखना एवं अनुभव करना विश्वास को ही पक्का कर देता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 35

भाव में ही है विश्वास की प्रतिष्ठा। युक्ति-तर्क विश्वास नहीं ला सकता। भाव जितना पतला, विश्वास उतना पतला, निष्ठा भी उतनी कम।
विश्वास है बुद्धि की सीमा के बाहर; विश्वास-अनुयायी बुद्धि होती है। बुद्धि में हाँ-ना है, संशय है; विश्वास में हाँ-ना नहीं, संशय भी नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 29 October 2008

सत्यानुसरण 34

जो भाव विरुद्ध भाव द्वारा आहत या अभिभूत नहीं होता, वही है विश्वास।
विश्वास नहीं रहने पर दर्शन कैसे होगा ?
कर्म विश्वास का अनुसरण करता है, जैसा विश्वास, कर्म भी वैसा ही होता है।
गंभीर विश्वास से सब हो सकता है। विश्वास करो,-- सावधान ! अहंकार, अधैर्य और विरक्ति जिसमें न आये-- जो चाहते हो वही होगा !
विश्वास ही विस्तार और चैतन्य ला दे सकता है और अविश्वास जड़त्व, अवसाद, संकीर्णता ले आता है।
विश्वास युक्ति-तर्क के परे है; यदि विश्वास करो, जितने युक्ति-तर्क हैं तुम्हारा समर्थन करेंगे ही।
तुम जिस तरह विश्वास करोगे, युक्ति-तर्क तुम्हारा उसी तरह समर्थन करेंगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 28 October 2008

सत्यानुसरण 33

धर्म को जानने का अर्थ है विषय के मूल कारण को जानना और वही जानना ज्ञान है।
उस मूल के प्रति अनुरक्ति ही है भक्ति; और भक्ति के तारतम्यानुसार ही ज्ञान का भी तारतम्य होता है। जितनी अनुरक्ति से जितना जाना जाता है, भक्ति और ज्ञान भी उतना ही होता है।
तुम विषय में जितना आसक्त होते हो, विषय सम्बन्ध में तुम्हारा ज्ञान भी उतना ही होता है।
जीवन का उद्देश्य है अभाव को एकदम भगा देना और वह केवल कारण को जानने से ही हो सकता है।
अभाव से परिश्रान्त मन ही धर्म या ब्रह्मजिज्ञासा करता है, अन्यथा नहीं करता।
किससे अभाव मिटेगा और किस प्रकार, ऐसी चिंता से ही अंत में ब्रह्मजिज्ञासा आती है।
जिस पर विषय का अस्तित्व है वही है धर्म; जब तक उसे नहीं जाना जाता तब तक विषय की ठीक-ठीक जानकारी नहीं होती।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 26 October 2008

सत्यानुसरण 32

क्षमा करो, किंतु क्षति मत करो।
प्रेम करो, किंतु आसक्त मत होओ।
खूब प्रेम करो, किंतु घुलमिल मत जाओ।
बक-बक करना पूर्णत्व का चिह्न नहीं।
यदि स्वयं संतुष्ट या निर्भावना हुए हो तो दूसरे के लिए चेष्टा करो।
जिस परिमाण में दुःख के कारण से मन संलग्न होकर अभिभूत होगा, उसी परिमाण में हृदय में भय आएगा एवं दुर्बलताग्रस्त हो जाओगे।
यदि रक्षा पाना चाहते, भय एवं दुर्बलता नाम की कोई चीज मत रखो; सत् चिंता एवं सत् कर्म में डूबे रहो।
असत् में आसक्ति से भय, शोक एवं दुःख आते हैं। असत् का परिहार करो, सत् में आस्थावान बनो, त्राण पाओगे।
सत्-चिंता में निमज्जित रहो, सत् कर्म तुम्हारा सहाय होगा एवं तुम्हारा चतुर्दिक सत् होकर सब समय तुम्हारी रक्षा करेगा ही।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 25 October 2008

सत्यानुसरण 31

धनी बनो क्षति नहीं, किंतु दीन एवं दाता बनो।
धनवान यदि अहंकारी होता है, वह दुर्दशा में अवनत होता है।
दीनताहीन अहंकारी धनी प्रायः अविश्वासी होता है, और उसके हृदय में स्वर्ग का द्वार नहीं खुलता।
अहंकारी धनी मलिनता का दास होता है, इसीलिये ज्ञान की उपेक्षा करता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 23 October 2008

सत्यानुसरण 30

पड़े-पड़े मरने से चलकर मरना अच्छा है।
जो बोलने में कम, काम में अधिक है, वही है प्रथम श्रेणी का कर्मी; जो जैसा बोलता है, वैसा ही करता है, वह है मध्यम श्रेणी का कर्मी; जो बोलता अधिक है, करता कम है, वह है तृतीय श्रेणी का कर्मी; और जिसे बोलने में भी आलस्य, करने में भी आलस्य, वही है अधम।
दौड़ कर जाओ, किंतु हाँफ न जाना; और ठोकर खाकर जिसमें गिर न पडो, दृष्टि रखो।
जिस काम में तुम्हें विरक्ति और क्रोध आ रहा है, निश्चय जानो वह व्यर्थ होने को है।
कार्य साधन के समय उससे जो विपदा आएगी, उसके लिए राजी रहो; विरक्त या अधीर न होना, सफलता तुम्हारी दासी होगी।
चेष्टा करो, दुःख न करो, कातर मत होओ, सफलता आएगी ही।
कार्यकुशल का चिह्न दुःख का प्रलाप नहीं।
उत्तेजित मस्तिष्क और वृथा आडम्बरयुक्त चिंता-दोनों ही असिद्धि के लक्षण हैं।
विपदा को धोखा देकर और परास्त कर सफलता-लक्ष्मी लाभ करो; विपदा जिसमें तुम्हें सफलता से वंचित न करे।
सुख अथवा दुःख यदि तुम्हारा गतिरोध नहीं करे तब तुम निश्चय गंतव्य पर पहुँचोगे, संदेह नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 17 October 2008

सत्यानुसरण 29

दान करो, किंतु दीन होकर, बिना प्रत्याशा के।
तुम्हारे अन्तर में दया का द्वार खुल जाये।
दया के हिसाब से किया गया दान अहंकार का ही परिपोषक होता है।
जो कातरभाव से तुम्हारा दान ग्रहण करते हैं, गुरुरूप में वे तुम्हारे हृदय में दयाभाव का उद्वोधन करते हैं; अतएव कृतज्ञ होओ !
जिसे दान दोगे, उसका दुःख अनुभव कर सहानुभूति प्रकाश करो, साहस दो, सांत्वना दो; बाद में साध्यानुसार यत्न के साथ दो; प्रेम के अधिकारी होओगे- दान सिद्ध होगा।
दान करके प्रकाश जितना न करो उतना ही अच्छा-अहंकार से बचोगे।
याचक को लौटाओ नहीं। अर्थ, नहीं तो सहानुभूति, साहस, सांत्वना, मधुर बात, जो भी एक, दो-- हृदय कोमल होगा।
दूसरे की मंगल-कामना ही अपने मंगल की प्रसूति हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 16 October 2008

सत्यानुसरण 28

यदि पाप किये हो, कातर कंठ से उसे प्रकाश करो, शीघ्र ही सांत्वना पाओगे।
सावधान! संकीर्णता या पाप को गोपन न रखो; उत्तरोत्तर वर्द्धित होकर अतिशीघ्र तुम्हें अधःपतन के चरम में ले जायेगा।
अन्तर में जिसे गोपन करोगे वही वृद्धि पायेगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 27

क्षमा करो, किंतु हृदय से; भीतर गरम होकर अपारगतावशतः क्षमाशील होने मत जाओ।
विचार का भार, दण्ड का भार अपने हाथ में लेने मत जाओ; अन्तर सहित परम पिता पर न्यस्त करो, भला होगा।
किसी को भी अन्याय के लिये यदि तुम दण्ड देते हो, निश्चित जानो-परमपिता उस दण्ड को तुम दोनों के बीच तारतम्यानुसार बाँट देंगे।
पिता के लिये, सत्य के लिये दुःख भोग करो; अनन्त शान्ति पाओगे।
तुम सत्य में अवस्थान करो; अन्याय को सहन करने की चेष्टा करो, प्रतिरोध न करो, शीघ्र ही परममंगल के अधिकारी होओगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 15 October 2008

सत्यानुसरण 26

दीन होने का अर्थ गन्दा बने रहना नहीं है।
व्याकुलता का अर्थ विज्ञापन नहीं बल्कि हृदय की एकांत उद्दाम आकांक्षा है।
स्वार्थपरता स्वाधीनता नहीं, वरन स्वाधीनता का अंतराय (बाधक) है।
तुम जितने लोगों की सेवा करोगे उतने लोगों के यथासर्वस्व के अधीश्वर बनोगे।
तेज का अर्थ क्रोध नहीं, वरन विनय समन्वित दृढ़ता है।
साधु का अर्थ जादूगर नहीं, वरन त्यागी, प्रेमी है।
भक्त का अर्थ क्या अहमक (बेवकूफ) है? वरन विनीत अहंयुक्त ज्ञानी है।
सहिष्णुता का अर्थ पलायन नहीं, है प्रेम सहित आलिंगन।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 14 October 2008

सत्यानुसरण 25

जिन्हें तुमने चालकरूप में मनोनीत कर लिया है, उनसे अपने हृदय की कोई भी बात गोपन न करो। गोपन करना उनपर अविश्वास करना है, और अविश्वास में ही है अधःपतन। चालक अन्तर्यामी हैं, यदि ठीक-ठीक विश्वास हो तो तुम कुकार्य कर ही नहीं सकोगे। और यदि कर भी लोगे तब निश्चय ही स्वीकार करोगे। और गोपन करने की इच्छा होते ही समझो, तुम्हारे हृदय में दुर्बलता आयी है एवं अविश्वास ने तुम पर आक्रमण किया है--सावधान होओ ! नहीं तो बहुत दूर चले जाओगे।
तुम यदि गोपन करते हो, तुम्हारे सत् चालक भी छिपे रहेंगे और तुम अपने हृदय का भाव व्यक्त करो, उन्मुक्त बनो, वे भी तुम्हारे सम्मुख उन्मुक्त होंगे, यह निश्चित है।
गोपन करने के अभिप्राय से चालक को 'अंतर्यामी हो, सब कुछ ही जान रहे हो', यह कह कर चालाकी करने से स्वयं पतित होंगे, दुर्दशायें धर दबायेंगी।
हृदय-विनिमय प्रेम का एक लक्षण है; और तुम यदि उसी हृदय को गोपन करते हो तो यह निश्चित है कि तुम स्वार्थभावापन्न हो, उनको केवल बातों से प्रेम करते हो।
काम में गोपनता है, किंतु प्रेम में तो दोनों के अन्दर कुछ भी गोपन नहीं रह सकता।
सत्-चालक क्षीण अहंयुक्त होते हैं; वे स्वयं अपनी क्षमता को तुम्हारे सम्मुख किसी भी तरह जाहिर न करेंगे, बल्कि इसीलिये तुम्हारे भावानुयायी तुम्हारा अनुसरण करेंगे-- यही है सत् चालक का स्वभाव। यदि सत्-चालक अवलंबन किए रहो, जो भी करो, भय नहीं, मरोगे नहीं, किंतु कष्ट के लिए राजी रहो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 13 October 2008

सत्यानुसरण 24

तुम गुरु या सत् में चित्त संलग्न करके आत्मोन्नयन में यत्नवान होओ, दूसरे तुम्हारे विषय में क्या बोलते हैं-देखने जाकर आकृष्ट न हो पडो- ऐसा करने से आसक्त हो पड़ोगे, आत्मोन्नयन नहीं होगा।
स्वार्थबुद्धि बहुधा आदर्श पर दोषारोपण करती है, संदेह ला देती है, अविश्वास ला देती है। स्वार्थबुद्धिवश आदर्श में दोष मत देखो, संदेह न करो, अविश्वास न करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा।
मुक्तस्वार्थ होकर आदर्श में दोष देखने पर उसका अनुसरण मत करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा!
आदर्श के दोष हैं-मूढ़ अहंकार, स्वार्थ चिंता, अप्रेम। अनुसरणकारी के दोष हैं-संदेह, अविश्वास, स्वार्थबुद्धि।
जो प्रेम के अधिकारी हैं, निःसंदेह चित्त से उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो छल-बल-कौशल से चाहे जैसे भी क्यों न हो सर्वभूतों की मंगल चेष्टा में यत्नवान हैं, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो किसी भी प्रकार से किसी को भी दुःख नहीं देते, पर असत् को भी प्रश्रय नहीं देते, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 12 October 2008

सत्यानुसरण 23

खबरदार, किसी को हुक्म देकर अथवा नौकर-चाकर द्वारा गुरु की सेवा-सुश्रूषा कराने न जाना--प्रसाद से वंचित मत होना।
माँ अपने हाथों से बच्चों का यत्न करती है, इसीलिये वहाँ पर अश्रद्धा नहीं आती-इसीसे तो इतना प्यार है !
अपने हाथों से गुरुसेवा करने से अंहकार पतला होता है, अभिमान दूर होता है और प्रेम आता है।
गुरु ही है भगवान् का साकार मूर्ति, और वे ही हैं absolute (अखंड)।
गुरु को अपना समझना चाहिए--माँ, बाप, पुत्र इत्यादि घर के लोगों का ख्याल करते समय जिसमें उनका भी चेहरा याद आये।
उनकी भर्त्सना का भय करने की अपेक्षा प्रेम का भय करना ही अच्छा है; मैं यदि अन्याय करूँ तो उनके प्राण में व्यथा लगेगी।
सब समय उन्हें अनुसरण करने की चेष्टा करो; वे जो भी कहें यत्न के साथ उनका पालन कर अभ्यास में चरित्रगत करने की नियत चेष्टा करो; और वही साधना है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 11 October 2008

सत्यानुसरण 22

अन्धा होना दुर्भाग्य की बात है ठीक ही, किंतु यष्टि-च्युत (लाठी खोना) होना और भी दुर्भाग्य है; कारण यष्टि ही आँखों का बहुत-सा काम करती है।
स्कूल जाने से ही किसी को छात्र नहीं कहते, और मंत्र लेने से ही किसी को शिष्य नहीं कहते, हृदय को शिक्षक या गुरु के आदेश पालन के लिए सर्वदा उन्मुक्त रखना चाहिए। अन्तर में स्थिर विश्वास चाहिए। वे जो भी बोल देंगे वही करना होगा, बिना आपत्ति के, बिना हिचकिचाहट के, बल्कि परम आनंद से।
जिस छात्र या शिष्य ने प्राणपण से आनंद सहित गुरु का आदेश पालन किया है वह कभी भी विफल नहीं हुआ।
शिष्य का कर्तव्य है प्राणपण से गुरु के आदेश को कार्य में परिणत करना, गुरु को लक्ष्य करके चलना।
जभी देखोगे, गुरु के आदेश से शिष्य को आनंद हुआ है, मुख प्रफुल्लित हो उठा है, तभी समझोगे कि उसके हृदय में शक्ति आयी है !
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 21

निष्ठा रखो, किंतु जिद्दी मत बनो।
साधु न सजो, साधु होने की चेष्टा करो।
किसी महापुरुष के साथ तुम अपनी तुलना न करो; किंतु सर्वदा उनका अनुसरण करो।
यदि प्रेम रहे तब पराये को "अपना" कहो, किंतु स्वार्थ न रखो।
प्रेम की बात बोलने से पहले प्रेम करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 10 October 2008

सत्यानुसरण 20

हृदय दो, कभी भी हटना नहीं पड़ेगा।
निर्भर करो, कभी भी भय नहीं पाओगे।
विश्वास करो, अन्तर के अधिकारी बनोगे।
साहस दो, किंतु शंका जगा देने की चेष्टा करो।
धैर्य धरो, विपद कट जायेगी।
अहंकार न करो, जगत में हीन होकर रहना न पड़ेगा।
किसी के द्वारा दोषी बनाने के पहले ही कातर भाव से अपना दोष स्वीकार करो, मुक्त कलंक होगे, जगत् के स्नेह के पात्र बनोगे।
संयत होओ, किंतु निर्भीक बनो।
सरल बनो, किंतु बेवकूफ न होओ।
विनीत होओ, उसका अर्थ यह नहीं कि दुर्बल-हृदय बनो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 19

एक की चाह करते समय दस की चाह मत कर बैठो, एक का ही जिससे चरम हो वही करो, सब कुछ पाओगे।
जीवन को जिस भाव से बलि दोगे, निश्चय उस प्रकार का जीवन लाभ करोगे।
जो कोई प्रेम के लिए जीवन दान करता है वह प्रेम का जीवन लाभ करता है।
उद्देश्य में अनुप्राणित होओ और प्रशांतचित्त से समस्त सहन करो, तभी तुम्हारा उद्देश्य सफल होगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 7 October 2008

सत्यानुसरण 18

जो ख्याल विवेक का अनुचर है उसी का अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी बनोगे।
विस्तार में अस्तित्व खो दो, किंतु बूझो नहीं। विस्तार ही है जीवन, विस्तार ही है प्रेम।
जो कर्म मन का प्रसारण ले आता है वही सुकर्म है और जिससे मन में संस्कार, कट्टरता इत्यादि आते हैं, फलस्वरूप, जिससे मन संकीर्ण होता है वही कुकर्म है।
जिस कर्म को मनुष्य के सामने कहने से मुँह पर कालिमा लगती है, उसे करने मत जाओ। जहाँ गोपनता है, घृणा-लज्जा-भय से वहीं दुर्बलता है, वहीं है पाप।
जो साधना करने से हृदय में प्रेम आता है, वही करो और जिससे क्रूरता, कट्टरता, हिंसा आती है, वह फिलहाल लाभजनक हो तो भी उसके नजदीक मत जाओ।
तुमने यदि ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिससे चन्द्र-सूर्य को कक्षच्युत कर सकते हो, पृथ्वी को तोड़कर टुकडा-टुकडा कर सकते हो या सभी को ऐश्वर्यशाली कर दे सकते हो, किंतु यदि हृदय में प्रेम नहीं रहे तो तुम्हारा कुछ हुआ ही नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 4 October 2008

सत्यानुसरण 17

स्पष्टवादी होओ, किंतु मिष्टभाषी बनो।
बोलने में विवेचना करो, किंतु बोलकर विमुख मत होओ।
यदि भूल बोल चुके हो, सावधान होओ, भूल नहीं करो।
सत्य बोलो, किंतु संहार न लाओ।
सत् बात बोलना अच्छा है, किंतु सोचना, अनुभव करना और भी अच्छा है।
सत् बात बोलने की अपेक्षा सत् बात बोलना अच्छा है निश्चय, किंतु बोलने के साथ कार्य करना एवं अनुभव न रहा तो क्या हुआ?-- बेहला, वीणा जिस तरह वादक के अनुग्रह से बजती अच्छी है, किंतु वे स्वयं कुछ अनुभव नहीं कर सकती।
जो अनुभूति की खूब गपें मारता है पर उसके लक्षण प्रकाशित नहीं होते, उसकी सभी गपें कल्पनामात्र या आडम्बर हैं।
जितना डुबोगे उतना ही बेमालूम होओगे।
जैसे अनार पकते ही फट जाता है, तुम्हारे अन्तर में सत् भाव परिपक्व होते ही स्वयं फट जायेगा--तुम्हें मुँह से उसे व्यक्त करना न होगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 2 October 2008

सत्यानुसरण 16

हँसो, किंतु विद्रुप में नहीं।
रोओ, किंतु आसक्ति में नहीं, प्यार में, प्रेम में।
बोलो, किंतु आत्मप्रशंसा या ख्याति विस्तार के लिए नहीं।
तुम्हारे चरित्र के किसी भी उदाहरण से यदि किसी का मंगल हो तो उससे उसको वंचित मत रखो।
तुम्हारा सत् स्वभाव कर्म में फूट निकले, किंतु अपनी भाषा में व्यक्त न हो, नजर रखो।
सत् में अपनी आसक्ति संलग्न करो, अज्ञात भाव से सत् बनोगे। तुम अपने भाव से सत्-चिंता में निमग्न होओ, तुम्हारे अनुयायी भाव स्वयं फूट निकलेंगे।
असत्-चिंता जिस प्रकार दृष्टि में, वाक्य में, आचरण में, व्यवहार इत्यादि में व्यक्त हो जाती है, सत्-चिंता भी उसी प्रकार व्यक्त हो जाती है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 15

जितने दिनों तक तुम्हारे शरीर और मन में व्यथा लगती है उतने दिनों तक तुम एक चींटी की भी व्यथा के निराकरण की ओर चेष्टा रखो और ऐसा यदि नहीं करते हो तो तुमसे हीन और कौन है ?
अपने गाल पर थप्पड़ लगने पर यदि कह सको, कौन किसको मारता है, तभी दूसरे के समय बोलो--अच्छा ही है। खबरदार, स्वयं यदि ऐसा नहीं सोच सको तो दूसरे के समय बोलने मत जाओ!
यदि अपने कष्ट के समय संसारी बनते हो तो दूसरे के समय ब्रह्मज्ञानी मत बनो। वरन अपने दुःख के समय ब्रह्मज्ञानी बनो और दूसरे के समय संसारी, ऐसा कृत्रिम-भाव भी अच्छा है।
यदि मनुष्य हो तो अपने दुःख में हँसो और दूसरे के दुःख में रोओ।
अपनी मृत्यु यदि नापसंद करते हो तो कभी भी किसी को 'मरो' न कहो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण