Thursday, 16 October 2008

सत्यानुसरण 28

यदि पाप किये हो, कातर कंठ से उसे प्रकाश करो, शीघ्र ही सांत्वना पाओगे।
सावधान! संकीर्णता या पाप को गोपन न रखो; उत्तरोत्तर वर्द्धित होकर अतिशीघ्र तुम्हें अधःपतन के चरम में ले जायेगा।
अन्तर में जिसे गोपन करोगे वही वृद्धि पायेगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 27

क्षमा करो, किंतु हृदय से; भीतर गरम होकर अपारगतावशतः क्षमाशील होने मत जाओ।
विचार का भार, दण्ड का भार अपने हाथ में लेने मत जाओ; अन्तर सहित परम पिता पर न्यस्त करो, भला होगा।
किसी को भी अन्याय के लिये यदि तुम दण्ड देते हो, निश्चित जानो-परमपिता उस दण्ड को तुम दोनों के बीच तारतम्यानुसार बाँट देंगे।
पिता के लिये, सत्य के लिये दुःख भोग करो; अनन्त शान्ति पाओगे।
तुम सत्य में अवस्थान करो; अन्याय को सहन करने की चेष्टा करो, प्रतिरोध न करो, शीघ्र ही परममंगल के अधिकारी होओगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 15 October 2008

सत्यानुसरण 26

दीन होने का अर्थ गन्दा बने रहना नहीं है।
व्याकुलता का अर्थ विज्ञापन नहीं बल्कि हृदय की एकांत उद्दाम आकांक्षा है।
स्वार्थपरता स्वाधीनता नहीं, वरन स्वाधीनता का अंतराय (बाधक) है।
तुम जितने लोगों की सेवा करोगे उतने लोगों के यथासर्वस्व के अधीश्वर बनोगे।
तेज का अर्थ क्रोध नहीं, वरन विनय समन्वित दृढ़ता है।
साधु का अर्थ जादूगर नहीं, वरन त्यागी, प्रेमी है।
भक्त का अर्थ क्या अहमक (बेवकूफ) है? वरन विनीत अहंयुक्त ज्ञानी है।
सहिष्णुता का अर्थ पलायन नहीं, है प्रेम सहित आलिंगन।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 14 October 2008

सत्यानुसरण 25

जिन्हें तुमने चालकरूप में मनोनीत कर लिया है, उनसे अपने हृदय की कोई भी बात गोपन न करो। गोपन करना उनपर अविश्वास करना है, और अविश्वास में ही है अधःपतन। चालक अन्तर्यामी हैं, यदि ठीक-ठीक विश्वास हो तो तुम कुकार्य कर ही नहीं सकोगे। और यदि कर भी लोगे तब निश्चय ही स्वीकार करोगे। और गोपन करने की इच्छा होते ही समझो, तुम्हारे हृदय में दुर्बलता आयी है एवं अविश्वास ने तुम पर आक्रमण किया है--सावधान होओ ! नहीं तो बहुत दूर चले जाओगे।
तुम यदि गोपन करते हो, तुम्हारे सत् चालक भी छिपे रहेंगे और तुम अपने हृदय का भाव व्यक्त करो, उन्मुक्त बनो, वे भी तुम्हारे सम्मुख उन्मुक्त होंगे, यह निश्चित है।
गोपन करने के अभिप्राय से चालक को 'अंतर्यामी हो, सब कुछ ही जान रहे हो', यह कह कर चालाकी करने से स्वयं पतित होंगे, दुर्दशायें धर दबायेंगी।
हृदय-विनिमय प्रेम का एक लक्षण है; और तुम यदि उसी हृदय को गोपन करते हो तो यह निश्चित है कि तुम स्वार्थभावापन्न हो, उनको केवल बातों से प्रेम करते हो।
काम में गोपनता है, किंतु प्रेम में तो दोनों के अन्दर कुछ भी गोपन नहीं रह सकता।
सत्-चालक क्षीण अहंयुक्त होते हैं; वे स्वयं अपनी क्षमता को तुम्हारे सम्मुख किसी भी तरह जाहिर न करेंगे, बल्कि इसीलिये तुम्हारे भावानुयायी तुम्हारा अनुसरण करेंगे-- यही है सत् चालक का स्वभाव। यदि सत्-चालक अवलंबन किए रहो, जो भी करो, भय नहीं, मरोगे नहीं, किंतु कष्ट के लिए राजी रहो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 13 October 2008

सत्यानुसरण 24

तुम गुरु या सत् में चित्त संलग्न करके आत्मोन्नयन में यत्नवान होओ, दूसरे तुम्हारे विषय में क्या बोलते हैं-देखने जाकर आकृष्ट न हो पडो- ऐसा करने से आसक्त हो पड़ोगे, आत्मोन्नयन नहीं होगा।
स्वार्थबुद्धि बहुधा आदर्श पर दोषारोपण करती है, संदेह ला देती है, अविश्वास ला देती है। स्वार्थबुद्धिवश आदर्श में दोष मत देखो, संदेह न करो, अविश्वास न करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा।
मुक्तस्वार्थ होकर आदर्श में दोष देखने पर उसका अनुसरण मत करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा!
आदर्श के दोष हैं-मूढ़ अहंकार, स्वार्थ चिंता, अप्रेम। अनुसरणकारी के दोष हैं-संदेह, अविश्वास, स्वार्थबुद्धि।
जो प्रेम के अधिकारी हैं, निःसंदेह चित्त से उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो छल-बल-कौशल से चाहे जैसे भी क्यों न हो सर्वभूतों की मंगल चेष्टा में यत्नवान हैं, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो किसी भी प्रकार से किसी को भी दुःख नहीं देते, पर असत् को भी प्रश्रय नहीं देते, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 12 October 2008

सत्यानुसरण 23

खबरदार, किसी को हुक्म देकर अथवा नौकर-चाकर द्वारा गुरु की सेवा-सुश्रूषा कराने न जाना--प्रसाद से वंचित मत होना।
माँ अपने हाथों से बच्चों का यत्न करती है, इसीलिये वहाँ पर अश्रद्धा नहीं आती-इसीसे तो इतना प्यार है !
अपने हाथों से गुरुसेवा करने से अंहकार पतला होता है, अभिमान दूर होता है और प्रेम आता है।
गुरु ही है भगवान् का साकार मूर्ति, और वे ही हैं absolute (अखंड)।
गुरु को अपना समझना चाहिए--माँ, बाप, पुत्र इत्यादि घर के लोगों का ख्याल करते समय जिसमें उनका भी चेहरा याद आये।
उनकी भर्त्सना का भय करने की अपेक्षा प्रेम का भय करना ही अच्छा है; मैं यदि अन्याय करूँ तो उनके प्राण में व्यथा लगेगी।
सब समय उन्हें अनुसरण करने की चेष्टा करो; वे जो भी कहें यत्न के साथ उनका पालन कर अभ्यास में चरित्रगत करने की नियत चेष्टा करो; और वही साधना है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 11 October 2008

सत्यानुसरण 22

अन्धा होना दुर्भाग्य की बात है ठीक ही, किंतु यष्टि-च्युत (लाठी खोना) होना और भी दुर्भाग्य है; कारण यष्टि ही आँखों का बहुत-सा काम करती है।
स्कूल जाने से ही किसी को छात्र नहीं कहते, और मंत्र लेने से ही किसी को शिष्य नहीं कहते, हृदय को शिक्षक या गुरु के आदेश पालन के लिए सर्वदा उन्मुक्त रखना चाहिए। अन्तर में स्थिर विश्वास चाहिए। वे जो भी बोल देंगे वही करना होगा, बिना आपत्ति के, बिना हिचकिचाहट के, बल्कि परम आनंद से।
जिस छात्र या शिष्य ने प्राणपण से आनंद सहित गुरु का आदेश पालन किया है वह कभी भी विफल नहीं हुआ।
शिष्य का कर्तव्य है प्राणपण से गुरु के आदेश को कार्य में परिणत करना, गुरु को लक्ष्य करके चलना।
जभी देखोगे, गुरु के आदेश से शिष्य को आनंद हुआ है, मुख प्रफुल्लित हो उठा है, तभी समझोगे कि उसके हृदय में शक्ति आयी है !
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण