जो वृद्धिप्राप्त होकर, सब कुछ होकर वही है--वही है ब्रह्म।
जगत् के समस्त ऐश्वर्य--ज्ञान, प्रेम एवं कर्म --जिनके अन्दर सहज उत्सारित हैं, और जिनके प्रति आसक्ति से मनुष्य का विच्छिन्न जीवन एवं जगत् के समस्त विरोधों का चरम समाधान लाभ होता है--वे ही हैं मनुष्य के भगवान।
भगवान को जानने का अर्थ ही है समस्त को समझना या जानना।
किसी मूर्त्त आदर्श में जिनकी कर्ममय अटूट आसक्ति ने समय या सीमा को अतिक्रम कर उन्हें सहज भाव से भगवान बना दिया है--जिनके, काव्य, दर्शन एवं विज्ञान मन के भले-बुरे विच्छिन्न संस्कारों को भेद कर उस आदर्श में ही सार्थक हो उठे हैं--वे ही हैं सद् गुरु।
जिनका मन सत् या एकासक्ति से पूर्ण हैं--वे ही सत् या सती हैं।
आदर्श में मन को सम्यक प्रकार से न्यस्त करने का नाम है संन्यास।
किसी विषय में मन के सम्यक भाव से लगे रहने का नाम है--समाधि।
नाम मनुष्य को तीक्ष्ण बनाता है और ध्यान मनुष्य को स्थिर और ग्रहणक्षम बनाता है।
ध्यान का अर्थ ही है किसी एक की चिंता में लगे रहना। और, उसे ही हम बोध कर सकते हैं--जो कि हमारे लगे रहने में विक्षेप ले आता है, किंतु भंग नहीं कर सकता है।
विरक्त होने का अर्थ ही है विक्षिप्त होना।
तीक्ष्ण होओ, किंतु स्थिर होओ--समस्त अनुभव कर पाओगे!
जिस किसी में युक्त होने या एकमुखी आसक्ति का नाम ही है--योग।
जिस किसी के द्वारा प्रतिहत होने पर जो अपने को प्रतिष्ठित करना चाहता है--वही है अहं (self)।
अहं को सख्त करने का अर्थ ही है दूसरे को नहीं जानना।
अहं को सख्त करने का अर्थ ही है दूसरे को नहीं जानना।
वस्तु-विषयक सम्यक दर्शन द्वारा तन्मनन से मन की निवृति जिन्हें हुई है--वे ही हैं ऋषि।
मन के सभी प्रकार की ग्रंथियों का (संस्कारों का) समाधान या मोचन हो कर एक में सार्थक होना ही है--मुक्ति।
जो भाव एवं कर्म मनुष्य को कारणमुखी बना देते हैं--वे ही हैं आध्यात्मिकता।
जो तुलना अन्तर्निहित कारण को प्रस्फुटित कर देती है--वही है प्रकृत विचार।
किसी वस्तु को लक्ष्य करके उसका स्वरूप निर्देशक विश्लेषण ही है --युक्ति।
कोई काम करके--विचार द्वारा उसके भले-बुरे को अनुभव कर जिस ताप के कारण बुराई से विरति आती है--वही है अनुताप।
जहाँ गमन करने से मन की ग्रंथि का मोचन या समाधान होता है--वही है तीर्थ।
जो करने से अस्तित्व की रक्षा होती है--वही है पुण्य।
जो करने से रक्षा से पतित होता है--वही है पाप।
जिसका अस्तित्व है एवं उसका विकास है--वही है सत्य (Real)।
जो धारणा करने से मन का निजत्व अक्षुण्ण रहता है--वही है ससीम।
जो धारणा करने से मन निजत्व को खो बैठता है--वही है अनंत या असीम।
शान्ति! शान्ति! शान्ति!
-- : श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण