Saturday, 29 November 2008

सत्यानुसरण 57

जो वृद्धिप्राप्त होकर, सब कुछ होकर वही है--वही है ब्रह्म।
जगत् के समस्त ऐश्वर्य--ज्ञान, प्रेम एवं कर्म --जिनके अन्दर सहज उत्सारित हैं, और जिनके प्रति आसक्ति से मनुष्य का विच्छिन्न जीवन एवं जगत् के समस्त विरोधों का चरम समाधान लाभ होता है--वे ही हैं मनुष्य के भगवान।
भगवान को जानने का अर्थ ही है समस्त को समझना या जानना।
किसी मूर्त्त आदर्श में जिनकी कर्ममय अटूट आसक्ति ने समय या सीमा को अतिक्रम कर उन्हें सहज भाव से भगवान बना दिया है--जिनके, काव्य, दर्शन एवं विज्ञान मन के भले-बुरे विच्छिन्न संस्कारों को भेद कर उस आदर्श में ही सार्थक हो उठे हैं--वे ही हैं सद् गुरु।
जिनका मन सत् या एकासक्ति से पूर्ण हैं--वे ही सत् या सती हैं।
आदर्श में मन को सम्यक प्रकार से न्यस्त करने का नाम है संन्यास।
किसी विषय में मन के सम्यक भाव से लगे रहने का नाम है--समाधि।
नाम मनुष्य को तीक्ष्ण बनाता है और ध्यान मनुष्य को स्थिर और ग्रहणक्षम बनाता है।
ध्यान का अर्थ ही है किसी एक की चिंता में लगे रहना। और, उसे ही हम बोध कर सकते हैं--जो कि हमारे लगे रहने में विक्षेप ले आता है, किंतु भंग नहीं कर सकता है।
विरक्त होने का अर्थ ही है विक्षिप्त होना।
तीक्ष्ण होओ, किंतु स्थिर होओ--समस्त अनुभव कर पाओगे!
जिस किसी में युक्त होने या एकमुखी आसक्ति का नाम ही है--योग।
जिस किसी के द्वारा प्रतिहत होने पर जो अपने को प्रतिष्ठित करना चाहता है--वही है अहं (self)।
अहं को सख्त करने का अर्थ ही है दूसरे को नहीं जानना।
वस्तु-विषयक सम्यक दर्शन द्वारा तन्मनन से मन की निवृति जिन्हें हुई है--वे ही हैं ऋषि।
मन के सभी प्रकार की ग्रंथियों का (संस्कारों का) समाधान या मोचन हो कर एक में सार्थक होना ही है--मुक्ति।
जो भाव एवं कर्म मनुष्य को कारणमुखी बना देते हैं--वे ही हैं आध्यात्मिकता।
जो तुलना अन्तर्निहित कारण को प्रस्फुटित कर देती है--वही है प्रकृत विचार।
किसी वस्तु को लक्ष्य करके उसका स्वरूप निर्देशक विश्लेषण ही है --युक्ति।
कोई काम करके--विचार द्वारा उसके भले-बुरे को अनुभव कर जिस ताप के कारण बुराई से विरति आती है--वही है अनुताप।
जहाँ गमन करने से मन की ग्रंथि का मोचन या समाधान होता है--वही है तीर्थ।
जो करने से अस्तित्व की रक्षा होती है--वही है पुण्य।
जो करने से रक्षा से पतित होता है--वही है पाप।
जिसका अस्तित्व है एवं उसका विकास है--वही है सत्य (Real)।
जो धारणा करने से मन का निजत्व अक्षुण्ण रहता है--वही है ससीम।
जो धारणा करने से मन निजत्व को खो बैठता है--वही है अनंत या असीम।
शान्ति! शान्ति! शान्ति!
-- : श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 27 November 2008

सत्यानुसरण 56

जैसा करने से जिसकी प्राप्ति होती है, वैसा नहीं करते हो तो उसके लिये दुःखित मत होओ।
करने के पहले दुःख करना अप्राप्ति को ही बुलाता है।
पाने के लिये -- वह जो भी हो, सुनना होगा कि वह कैसे पाया जाता है--और ठीक-ठीक उसे करना होगा--बिना किये पाने के लिये उदग्रीव होने से बढकर बेवकूफी और क्या है?
निश्चय जानो--करना ही है पाने की जननी।
करनी जब चाह का अनुसरण करती है--तभी उसकी कृतार्थता सम्मुख उपस्थित होती है।
मनुष्य का आकांक्षित मंगल उसके अभ्यस्त संस्कार के अंतराल में रहता है, और मंगलदाता तभी दण्डित होते हैं जभी प्रदत्त मंगल का अभ्यस्त संस्कार के साथ विरोध उपस्थित होता है--और इसीलिए प्रेरित-पुरुष स्वदेश में कुत्सामंडित होते हैं।
प्रकृति उन्हें धिक्कारती है, जो की प्रत्यक्ष की अवज्ञा या अग्राह्य कर परोक्ष का आलिंगन करते हैं।
और, परोक्ष जिनके प्रत्यक्ष को रंजित वा लांछित करता है वे ही धोखे के अधिकारी होते हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 26 November 2008

सत्यानुसरण 55

प्रेम की प्रार्थना करो, और हिंसा को दूर से परिहार करो, जगत् तुम्हारी और आकृष्ट होगा ही।
तुम्हें मन का संन्यास हो; संन्यासी का वेष बनाकर झूठमूठ बहुरूपिया मत बन बैठो।
तुम्हारा मन सत् या ब्रह्म में विचरण करे, किंतु शरीर को गेरूआ या रंग टंग से सजाने में व्यस्त मत होओ, ऐसा करने से मन शरीरमुखी हो जायेगा।
अहंकार त्याग करो, सत् स्वरूप में अवस्थान कर पाओगे।
पतित को उद्धार की बात सुनाओ, आशा दो, छल-बल-कौशल से उसके उन्नयन में सहायता करो, साहस दो-किंतु उच्छृन्खल होने मत दो।
यदि किसी दिन अपने प्रेमास्पद को सर्वस्व न्योच्छावर कर निमज्जित हुए हो--और उतरा आने की आशंका देखते हो, तो जोर करके तत्क्षण निमज्जित होकर विगतप्राण हो जाओ--देखोगे--प्रेमास्पद कितने सुंदर हैं, किस प्रकार तुम्हें आलिंगन किए हुए हैं।
यदि थोडी-सी लोकनिंदा, उपहास, स्वजनानुरक्ति, स्वार्थहानि, अनादर, आत्म या परगंजना तुम्हें अपने प्रेमास्पद से दूर रख सके तो तुम्हारा प्रेम कितना क्षीण है--क्या ऐसी बात नहीं?
किसी चीज को "आज समझ गया हूँ फिर कल समझ में नहीं आती--पहेली" इत्यादि कहकर शृगाल मत बनो--कारण, इतर जंतु भी जिसे समझ लेते हैं उसे भूलते नहीं। इसीलिए, ऐसा बोलना ही दुष्ट या अस्थिर-बुद्धि का परिचायक है।
आज उपकृत हुआ हूँ इसलिए कल फिर स्वार्थान्ध होकर अपकृत होने का बहाना कर अकृतज्ञता को मत बुला लो। इससे बढ़कर इतरता और क्या है? जिस किसी से पूछ लो।
मूर्खता नहीं रहने से उपकृत की कुत्सा से उपकारी को निन्दित नहीं किया जाता।
उपकारी जब उपकृत द्बारा विध्वस्त होता है तब मूढ़ अहं कृतज्ञतारूपी अर्गला को तोड़कर दंभकंटकाकीर्ण मृत्यु-पथ को उन्मुक्त करता है।
आश्रित की निंदा से जो आश्रय को कुत्सित विवेचना करते हैं--विश्वासघातकता उनका पीछा करती है।
प्रिय के प्रति प्रेम या मंगलविहीन कर्म कभी भी प्रेम का परिचायक नहीं।
प्रियतम के लिए कुछ करने की इच्छा नहीं होती--तत्राच खूब प्रेम करता हूँ--यह बात जैसी है, सोने का पीतल से बने पंडूक की बात भी वैसी है। स्वार्थबुद्धि ही प्रायः वैसा प्रेम करती है, इसीलिए--वैसे निष्काम धर्माक्रांत प्रेम को देखकर सावधान होना अच्छा है, नहीं तो विपदा की संभावना ही अधिक है।
प्रेम करते हो--अपिच तुम्हारे ऊपर उसके जोर या आधिपत्य, शासन, अपमान, अभिमान अथवा जिद करने से ही तुम्हें सुख होने के बजाय उल्टा होता है या ख़त्म हो जाता है--मैं कहता हूँ--तुम निश्चय ठगाओगे एवं ठगोगे, जितने दिन इस तरह रहोगे, --इसीलिए अभी भी सावधान होओ।
प्रेम का मोह--बाधा पाते ही वृद्धि, प्रेमास्पद के अत्याचार में भी घृणा नहीं आती, विच्छेद में सतेज होता है, मनुष्य को मूढ़ नहीं बनता, चिर दिन अतृप्ति रहती है, एक बार स्पर्श कर लेने पर त्यागा नहीं जाता--अपरिवर्तनीय हैं।
काम का मोह--बाधा में क्षीण, काम के अत्याचार से या जैसा चाहता है वैसा नहीं पाने पर घृणा, विच्छेद में भूल, मनुष्य को कापुरुष एवं मूढ़ बना देता है, भोग में ही है तृप्ति एवं विषाद, चिर दिन नहीं रहता--परिवर्तनीय है।
गरीयान होओ किंतु गर्वित मत बनो।
यदि मुग्ध करना चाहते हो तो स्वयं सम्पूर्ण भाव से मुग्ध होओ।
यदि सुंदर होने की इच्छा हो तो कुरूप में भी सुंदर देखो।
एकानुरक्ति, तीव्रता एवं क्रमागति में ही जीवन का सौन्दर्य एवं सार्थकता है।
बहुतों के प्रति प्रीति जो एक के प्रति प्रीति को हिला या विच्छिन्न नहीं कर सकती, वही प्रीति है प्रेम की भगिनी।
भले-बुरे का विचार कर विध्वस्त होने के बजाय सत् में (गुरु में) आकृष्ट होओ -- निर्विघ्न रूप से सफल होगे निश्चय।
दुर्बलता के समय सुंदर एवं सबलता की चिंता करो, और अहंकार में प्रिय एवं दीनता की चिंता करो--मानसिक स्वास्थ्य अक्षुन्न रहेगा।
दोष देखकर दुष्ट मत बनो, और तुम में संलग्न सभी को दुष्ट मत बना दो।
उन्हें दो--मांगो नहीं--पाने पर आनादित होओ।
तुम उनके इच्छाधीन होओ, उन्हें अपने इच्छाधीन करने की चेष्टा न करो--कारण, तुम्हारे लिए वे ही सुंदर हैं।
मिलन की आकुलता को किसी भी तरह न त्यागो, अन्यथा विरह की व्यथा मधुर नहीं होगी--और, दुःख में शान्ति अनुभव नहीं कर पाओगे।
जिसके लिए तुम्हारा सोचना, करना एवं बोध जितना एवं जिस प्रकार है, उसके प्रति तुम्हारी आसक्ति, खिंचाव या प्रेम उतना ही और उसी प्रकार है।
जिनके लिए सर्वस्व न्योच्छावर कर दिए हो-वे ही तुम्हारे भगवान् हैं, और वे ही हैं तुम्हारे परम गुरु।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 24 November 2008

सत्यानुसरण 54

तुम लता का स्वभाव अवलम्बन करो, और, आदर्शरूपी वृक्ष को लिपट कर धरो-सिद्धकाम होगे।
यदि तुम्हें आदर्श की बात बोलने में आनंद, सुनने में आनंद; उनकी चिंता करने में आनंद, उनका हुक्म पाने पर आनंद, उनके आदर में आनंद, अनादर में भी आनंद हो, उनके नाम से हृदय उछल पड़े-मैं निश्चय कहता हूँ, अपने उन्नयन के लिए तुम और नहीं सोचो।
सद् गुरु के शरणापन्न होओ, सत् नाम मनन करो, और, सत्संग का आश्रय ग्रहण करो--मैं निश्चय कहता हूँ, तुम्हें अपने उन्नयन के लिये सोचना नहीं पड़ेगा !
तुम भक्तिरूपी जल को त्याग कर आसक्तिरूपी बालू की रेत में बहुत दूर मत जाओ, दुःखरूपी सूर्योताप से बालू की रेत गर्म हो जाने पर लौटना मुश्किल होगा; थोड़ा उत्तप्त होते-होते अगर लौट नहीं सके, तो सूखकर मरना होगा।
भावमुखी रहने की चेष्टा करो, पतित नहीं होगे वरन अग्रसर होते रहोगे।
गुरुमुखी होने की चेष्टा करो, मन का अनुसरण नहीं करो--उन्नति तुम्हें किसी भी तरह त्याग नहीं करेगी।
विवेक को अवलम्बन करो, और मन का अनुसरण नहीं करो--उदारता तुम्हें कभी भी त्याग नहीं करेगी।
सत्य का आश्रय लो, और असत्य का अनुगमन नहीं करो--शान्ति तुम्हें किसी भी तरह छोड़कर नहीं रहेगी।
दीनता को अन्तर में स्थान दो--अहंकार तुम्हारा कुछ भी नहीं कर सकेगा।
जिसे त्याग करना हो उसकी ओर आकृष्ट या आसक्त न होना--दुःख से बचोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 23 November 2008

सत्यानुसरण 53

जभी देखो, मनुष्य तुम्हें प्रणाम करते हैं और उससे तुम्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं होती, मौखिक रूप से एक-आध बार आपत्ति कर लेते हो ठीक ही--मन में किंतु ऐसा विशेष कुछ भाव नहीं होता--तभी ठीक समझो, अन्तर में चोर के समान 'हमबड़ाई' प्रवेश कर गयी है; जितना शीघ्र हो, तुम सावधान हो जाओ, अन्यथा निश्चय ही अधःपतन में जाओगे।
जैसे ही किसी के प्रणाम करते ही साथ-साथ स्वयं दीनता से तुम्हारा सिर झुक जाता है, सेवा लेने के लिये मन एकदम राजी नहीं है, वरण सेवा करने के लिये मन सब समय व्यस्त रहता है, --आदर्श की बात कहते ही प्राण में आनंद होता है-तुम्हें भय नहीं, तुम मंगल की गोद में हो; एवं नित्य और भी अधिक ऐसे ही रहने की चेष्टा करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 21 November 2008

सत्यानुसरण 52

देह रहते अहंकार नहीं जाता, और, भाव रहते अहं नहीं जाता। तब अपने अहं को आदर्श पर छोड़ कर passive होकर जो जितना रह सकता है वह उतना है निरहंकार एवं वह उतना उदार है।
अपने पर गर्व जितना न किया जाय उतना ही मंगल, और आदर्श पर गर्व जितना किया जाय उतना ही मंगल।
परमपिता ही तुम्हारे अहंकार के विषय हों, और तुम उनमें ही आनंद उपभोग करो !
असत् आदर्श में अपना अहंकार न्यस्त न करो; अन्यथा तुम्हारा अहंकार और भी कठिन होगा।
आदर्श जितना उच्च या उदार हो उतना ही अच्छा है, कारण, जितनी उच्चता या उदारता का आश्रय लोगे, तुम भी उतना ही उच्च या उदार बनोगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 20 November 2008

सत्यानुसरण 51

जो अपना प्रचार करता है वह आत्म-प्रवंचना करता है, और, जो सत्य या आदर्श में मुग्ध होकर उसके विषय में कहता है, वही किंतु ठीक-ठीक आत्म-प्रचार करता है !
प्रकृत सत्य-प्रचारक ही जगत् के प्रकृत मंगलाकांक्षी हैं। उनकी दया से कितने जीवों का जो आत्मोन्नयन होता है उसकी इयत्ता नहीं।
तुम सत्य या आदर्श में मुग्ध रहो, हृदय में भाव स्वयं उबल पड़ेगा और उसी भाव में अनुप्राणित होकर कितने लोगों की जो उन्नति होगी उसकी कोई सीमा नहीं।
गुरु होना मत चाहो; गुरुमुख होने की चेष्टा करो। गुरु ही होते हैं जीव के प्रकृत उद्धारकर्ता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 16 November 2008

सत्यानुसरण 50

तुम्हारे भीतर यदि सत्य नहीं रहे, तब हजार बोलो, हजार ढोंग करो, हजार कायदा ही दिखाओ, तुम्हारे चरित्र से, तुम्हारे मन से, तुम्हारे वाक्य से उसकी ज्योति किसी भी तरह प्रकाशित नहीं होगी; सूर्य यदि नहीं रहे तो बहुत से चिराग भी अन्धकार को बिल्कुल दूर नहीं कर सकते।
जो सत्य का प्रचार करने में अपने महत्व का गल्प करता है एवं हर समय अपने को लेकर ही व्यस्त रहता है और नाना प्रकार से कायदा करके अपने को सुंदर दिखाना चाहता है, जिसके प्रति अंग-संचालन में, झलक-झलक में अहंकार झलकता रहता है, जिसके प्रेम में अहंकार, बात में अहंकार, दीनता में अहंकार, विश्वास में, ज्ञान में, भक्ति में, निर्भरता में अहंकार है- वह हजार पंडित हो, और वह चाहे ज्ञान-भक्ति की जितनी भी बातें क्यों न करे, निश्चय जानो वह भण्ड है; उससे बहुत दूर हट जाओ, उसकी बातें मत सुनो; किसी भी तरह उसके हृदय में सत्य नहीं है, मन में सत्य नहीं रहने से भाव कैसे आएगा।
प्रचार का अहंकार प्रकृत-प्रचार का बाधक है। वही प्रकृत प्रचारक है जो अपने महत्व की बात भूलकर भी जबान पर नहीं लाता, और, शरीर द्वारा सत्य का आचरण करता है, मन से सत्य-चिंता में मुग्ध रहता है एवं मुख से मन के भावानुयायी सत्य के विषय में कहता है।
जहाँ देखोगे, कोई विश्वास के गर्व के साथ सत्य के विषय में कहता है, दया की बातें बोलते-बोलते आनंद एवं दीनता से अधीर हो पड़ता है, प्रेम सहित आवेगपूर्ण होकर सभी को पुकारता है, आलिंगन करता है और जिस मुहूर्त में उसके महत्व ही बात कोई कहता है, उसे स्वीकार नहीं करता, वरन दीन एवं म्लान होकर भग्न-हृदय की तरह हो जाता है--यह बिल्कुल सही है की उसके पास उज्जवल सत्य निश्चय ही है, और, उसके साधारण चरित्र में भी देखोगे, सत्य प्रस्फुटित हो रहा है।
तुम भक्तिरूपी तेल में ज्ञानरूपी बत्ती भींगोकर सत्यरूपी चिराग जलाओ, देखोगे कितने फतिंगे, कितने कीडे, कितने जानवर, कितने मनुष्यों ने तुम्हें किस प्रकार घेर लिया है।
जो सत् की ही चिंता करता है, सत् की ही याजन करता है, जो सत्य का ही भक्त है, वही है प्रकृत प्रचारक।
आदर्श में गहरा विश्वास नहीं रहने पर निष्ठा भी नहीं आती, भक्ति भी नहीं आती; और, भक्ति नहीं होने से अनुभूति ही क्या होगी, ज्ञान ही क्या होगा, और वह प्रचार ही क्या करेगा ?
प्रकृत सत्य-प्रचारक का अहंकार अपने आदर्श में रहता है और भण्ड प्रचारक का अहंकार आत्म-प्रचार में।
जिसे मंगल समझोगे, जिसे सत्य समझोगे, मनुष्य से उसे कहने के लिए हृदय व्याकुल हो उठेगा, मनुष्य चाहे तुम्हें जो भी क्यों न कहें, मन पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा, किंतु मनुष्य को सत्यमुखी देखकर आनंद होगा--तभी उसे प्रचार कहा जायेगा।
ठीक-ठीक विश्वास, निर्भरता एवं भक्ति नहीं रहने पर कोई कभी भी प्रचारक नहीं हो सकता।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 15 November 2008

सत्यानुसरण 49

नाम-यश आत्मोन्नयन का घोर अन्तराय (बाधक) है।
तुम्हारी थोड़ी उन्नति होने से ही देखोगे किसी ने तुम्हें ठाकुर बना दिया है, कोई महापुरुष कहता है, कोई अवतार, कोई सद् गुरु इत्यादि कहता है; और फिर कोई शैतान, बदमाश, कोई व्यवसायी इत्यादि भी कहता है; सावधान! तुम इनमें से किसी की ओर नजर मत देना। तुम्हारे लिए ये सभी भूत हैं, नजर देने से ही गर्दन पर चढ़ बैठेंगे, उसे छुड़ाना भी महामुश्किल है। तुम अपने अनुसार काम किए जाओ, चाहे जो हो।
नाम-यश इत्यादि की आशा में अगर तुम्हारा मन भक्त का आचरण करता है, तब तो मन में कपटता छिपी हुई है--तत्क्षण उसे मारकर बाहर निकाल दो। तभी मंगल है, नहीं तो सब नष्ट हो जायेगा।
ठाकुर, अवतार किंवा भगवान् इत्यादि होने की साध मन में होते ही तुम निश्चय ही भण्ड बन जाओगे और मुंह से हजार कहने पर भी कार्य के रूप में कुछ भी नहीं कर सकोगे, यदि वैसी इच्छा रहे तो अभी त्यागो, नहीं तो अमंगल निश्चित है।
तुम जिस तरह प्रकृत होगे, प्रकृति तुम्हें उस तरह की उपाधि निश्चय देगी एवं तुम्हारे अन्दर वैसा अधिकार भी देंगी; इसे नित्य प्रत्यक्ष कर रहे हो; तो तुम्हें और क्या चाहिये ? प्राणपण से प्रकृत होने की चेष्टा करो। पढ़कर पास किए बिना क्या यूनिवर्सिटी किसी को उपाधि देती है?
भूलकर भी अपना प्रचार करने मत जाना या अपना प्रचार करने के लिए किसी से अनुरोध न करना-ऐसा करने से सभी तुमसे घृणा करेंगे और तुमसे दूर हट जायेंगे।
तुम यदि किसी सत्य को जानते हो और उसे यदि मंगलप्रद समझते हो, प्राणपण से उसके ही विषय में बोलो एवं सभी से जानने के लिये अनुरोध करो; समझने पर सभी तुम्हारी बात सुनेंगे एवं तुम्हारा अनुसरण करेंगे।
यदि तुमने सत्य देखा है, समझा है, तो तुम्हारे कायमनोवाक्य से वह प्रस्फुटित होगा ही। तुम जब तक उसमें खो नहीं जाते तब तक किसी भी तरह स्थिर नहीं रह सकोगे; सूर्य को क्या अन्धकार ढककर रख सकता है?
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 48

निर्भर करो, और साहस सहित अदम्य उत्साह से काम किये जाओ, लक्ष्य रखो, तुमसे तुम्हारा अपना और दूसरे का किसी प्रकार का अमंगल न हो। देखोगे, सौभाग्य-लक्ष्मी तुम्हारे घर में बँधी रहेगी।
कहा गया है, "वीर भोग्या वसुंधरा !" वह ठीक है; विश्वास, निर्भरता और आत्मत्याग, ये तीनों ही वीरत्व के लक्षण हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 14 November 2008

सत्यानुसरण 47

जो पहले कूद पड़ा है; जिसने पहले पथ दिखाया है, वही नेता है। नहीं तो केवल बातों से क्या नेता बना जा सकता है?
पहले दूसरों के लिये यथासर्वस्व ढालो, दस के लिये जान-प्राण दे दो और किसी का दोष कहकर दोष देखना भूल जाओ, सेवा में आत्महारा होओ, तभी नेता हो, तभी देश के हृदय हो, तभी देश के राजा हो। नहीं तो वे सब केवल बातों से नहीं होते।
यदि नेता बनना चाहते हो तो नेतृत्व का अहंकार त्याग करो, अपना गुणगान छोड़ दो, दूसरे के हित के लिये यथासर्वस्व दाँव पर लगा दो, और जो मंगल एवं सत्य हो स्वयं वही करके दिखाओ, और, सभी से प्रेम के साथ बोलो; देखोगे हजारों-हजार लोग तुम्हारा अनुसरण करेंगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 11 November 2008

सत्यानुसरण 46

सरल साधुता की तरह कोई चतुराई नहीं;--जो जैसा भी क्यों न हो, इस फंदे में पड़ेगा ही।
Honesty is the best policy (सरल साधुता ही है चरम कौशल)।
विनय के समान सम्मोहनकारी दूसरा कुछ भी नहीं।
प्रेम के समान आकर्षणकारी ही और क्या है ?
विश्वास के समान दूसरी सिद्धि नहीं।
ज्ञान के समान दूसरी दृष्टि नहीं।
आतंरिक दीनता के समान अहंकार को वश करने का दूसरा कुछ भी नहीं।
सद् गुरु के आदेश पालन के समान दूसरा मंत्र क्या है ?
चलो, आगे बढो, रास्ते को सोचकर ही क्लांत मत हो जाओ, नहीं तो जा नहीं पाओगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 45

अहंकार से ही आसक्ति आती है; आसक्ति से आती है अज्ञानता; और अज्ञानता ही है दुःख।
संदेह से ही अविश्वास आता है; और, अविश्वास ही है जड़त्व।
आलस्य से ही मूढता आती है; और मूढ़ता ही है अज्ञानता।
बाधाप्राप्त काम ही है क्रोध; और, क्रोध ही है हिंसा का बन्धु।
स्वार्थबुद्धि की आत्मतुष्टि का अभिप्राय ही है लोभ; और, यह लोभ ही है आसक्ति। जो निर्लोभ है वही है अनासक्त।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 10 November 2008

सत्यानुसरण 44

अहंकार आसक्ति लाता है; आसक्ति ला देती है स्वार्थबुद्धि; स्वार्थबुद्धि लाती है काम; काम से ही क्रोध की उत्पत्ति होती है; और, क्रोध से ही आती है हिंसा।
भक्ति ला देती है ज्ञान; ज्ञान से होता है सर्वभूतों में आत्मबोध; सर्वभूतों में आत्मबोध होने से ही आती है अहिंसा; और अहिंसा से ही आता है प्रेम। तुम जितना भर इनमें से जिस एक किसी का अधिकारी होगे, उतना ही भर इन सभी के अधिकारी होगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 43

अहंकार जितना घना होता है, अज्ञानता उतनी अधिक होती है; और अहं जितना पतला होता है, ज्ञान उतना उज्ज्वल होता है।
संदेह अविश्वास का दूत है और अविश्वास ही है अज्ञानता का आश्रय।
संदेह आने पर तत्क्षण उसके निराकरण की चेष्टा करो, और सत्-चिंता में निमग्न होओ --ज्ञान के अधिकारी होगे, और आनंद पाओगे।
असत् -चिंता से कुज्ञान या अज्ञान अथवा मोह जन्म लेता है, उसका परिहार करो, दुःख से बचोगे।
तुम असत् में जितना ही आसक्त होगे उतना ही स्वार्थबुद्धिसम्पन्न होगे, और उतना ही कुज्ञान या मोह से आच्छन्न हो पड़ोगे; और रोग, शोक, दारिद्र्य, मृत्यु इत्यादि यंत्रनाएँ तुम पर उतना ही आधिपत्य करेंगी, यह निश्चित है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 8 November 2008

सत्यानुसरण 42

अनुभूति द्वारा जो जाना जाय वही ज्ञान है।
जानने को ही वेद कहते हैं और वेद अखण्ड है।
जो जितना जानता है वह उतना ही भर वेदवित् है।
ज्ञान प्रहेलिका को ध्वंस कर मनुष्य को प्रकृत चक्षु प्रदान करता है।
ज्ञान वस्तु के स्वरूप को निर्देश करता है और वस्तु के जिस भाव को जान लेने पर जानना बाकी नहीं रहता, वही उसका स्वरूप है।
भक्ति चित्त को सत् में संलग्न करने की चेष्टा करती है, और उससे जो उपलब्धि होती है वही है ज्ञान।
अज्ञानता मनुष्य को उद्विग्न करती है, ज्ञान मनुष्य को शांत करता है। अज्ञानता ही दुःख का कारण है और ज्ञान ही आनंद है।
तुम जितने ज्ञान का अधिकारी होगे, उतना भर शांत होगे। तुम्हारा ज्ञान जैसा होगा, स्वच्छंद रूप से रहने की तुम्हारी क्षमता भी वैसी होगी।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 7 November 2008

सत्यानुसरण 41

नकली भक्ति मोटा-अहंकार-युक्त होती है, असली भक्ति होती है अहंकार-मुक्त अर्थात् खूब पतला अहंकार-युक्त।
नकली भक्ति-युक्त मनुष्य उपदेश नहीं ले सकता, उपदेष्टा के रूप में उपदेश केवल दे सकता है; इसीलिये कोई उसे यदि उपदेश देता है तो उसके चेहरे पर क्रोध के लक्षण, विरक्ति के लक्षण, संग छोड़ने की चेष्टा इत्यादि लक्षण प्रायः स्पष्ट प्रकाश पाते हैं।
असली भक्ति-युक्त मनुष्य उपदेष्टा का आसन लेने में बिल्कुल ही गैरराजी होता है। यदि उपदेश पाता है, उसके चेहरे पर आनंद के चिह्न झलकने लगते हैं।
अविश्वासी एवं बहुनैष्ठिक के हृदय में भक्ति आ ही नहीं सकती।
भक्ति एक के लिए बहुत से प्रेम करती है और आसक्ति बहुत के लिये एक से प्रेम करती है।
आसक्ति में स्वार्थ से आत्मतुष्टि होती है और भक्ति में परार्थ से आत्मतुष्टि होती है।
भक्ति की अनुरक्ति सत् में है और आसक्ति का नशा स्वार्थ में, अहं में है।
आसक्ति काम की पत्नी है और भक्ति प्रेम की छोटी बहन है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 6 November 2008

सत्यानुसरण 40

थोड़ा रो लेने से ही या नृत्य-गीतादि में उत्तेजित होकर उछल-कूद करने से ही जो भक्ति हुई, ऐसी बात नहीं है; सामयिक भावोन्मत्ततादि भक्त के लक्षण नहीं। भक्त के चरित्र में पतला अहंकार का चिह्न, विश्वास का चिह्न, सत्-चिंता का चिह्न, सद्व्यवहार का चिह्न एवं उदारता इत्यादि के चिह्न कुछ-न-कुछ रहेंगे ही, नहीं तो भक्ति नहीं आयी।
विश्वास नहीं आने पर निष्ठा नहीं आती और निष्ठा के बिना भक्ति रह नहीं सकती।
दुर्बल भावोन्मत्तता अनेक समय भक्ति जैसी दिखायी पड़ती है, वहाँ निष्ठा नहीं है और भक्ति का चरित्रगत लक्षण भी नहीं है।
जिसके हृदय में भक्ति है वह समझ नहीं पाता कि वह भक्त है और दुर्बल, निष्ठाहीन केवल भाव-प्रवण, मोटा अहंयुक्त हृदय सोचता है--मैं खूब भक्त हूँ।
अश्रु, पुलक, स्वेद, कम्पन होने से ही जो वहाँ भक्ति आयी है, ऐसी बात नहीं, भक्ति के इन सब के साथ अपना स्वधर्म चरित्रगत लक्षण रहेगा ही।
अश्रु, पुलक, स्वेद, कम्पन इत्यादि भाव के लक्षण हैं; वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं।
भक्ति के चरित्रगत लक्षणों के साथ यदि उस भाव के वे लक्षण प्रकाश पायें तभी वे सात्विक भाव के लक्षण हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 5 November 2008

सत्यानुसरण 39

विषय में मन संलग्न रहने को आसक्ति कहते हैं और सत् में संलग्न रहने को भक्ति कहते हैं।
प्रेम भक्ति की ही क्रमोन्नति है। भक्ति का गाढ़त्व ही प्रेम है। अहंकार जहाँ जितना पतला है भक्ति का स्थान भी वहाँ उतना ही अधिक है।
भक्ति बिना साधना में सफल होने का उपाय कहाँ है? भक्ति ही सिद्धि ला दे सकती है।
विश्वास जिस तरह अन्धा नहीं होता, भक्ति भी उसी तरह मूढ़ नहीं होती।
भक्ति में किसी भी समय किसी तरह की दुर्बलता नहीं।
क्लीवत्व, दुर्बलता बहुधा भक्ति का वेश पहन कर खड़े होते हैं, उनसे सावधान रहना।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 3 November 2008

सत्यानुसरण 38

विश्वास विरुद्ध भाव द्वारा आक्रांत होने पर ही संदेह आता है।
विश्वास संदेह द्वारा अभिभूत होने पर मन जब उसे ही समर्थन करता है तभी अवसाद आता है।
प्रतिकूल युक्ति त्याग कर विश्वास के अनुकूल युक्ति के श्रवण एवं मनन से संदेह दूरीभूत होता है, अवसाद नहीं रहता।
विश्वास प़क जाने पर कोई भी विरुद्ध भाव उसे हिला नहीं सकता।
प्रकृत विश्वासी को संदेह ही क्या करेगा या अवसाद ही क्या करेगा।
संदेह को प्रश्रय देने से वह घूण की तरह मन पर आक्रमण करता है, अंत में अविश्वासरुपी जीर्णता की चरममलिन दशा को प्राप्त होता है।
संदेह का निराकरण कर विश्वास की स्थापना करना ही है ज्ञानप्राप्ति।
तुम यदि पक्के विश्वासी होओ, विश्वास अनुयायी भाव के सिवाय जगत् का कोई विरुद्ध भाव, कोई मन्त्र, कोई शक्ति तुम्हें अभिभूत या जादू नहीं कर सकेगी, निश्चय जानो।
तुम्हारे मन से जिस परिमाण में विश्वास हटेगा, जगत् तुम पर उसी परिमाण में संदेह करेगा या अविश्वास करेगा एवं दुर्दशा भी तुम पर उसी परिमाण में आक्रमण करेगी, यह निश्चित है।
अविश्वास क्षेत्र दुर्दशा या दुर्गति का राजत्व है।
विश्वास-क्षेत्र बड़ा ही उर्वर है। सावधान, अविश्वासरूपी जंगल-झाड़ के संदेहरूपी अंकुर निकलते देखते ही तत्क्षण उसे उखाड़ फेंको, नहीं तो भक्तिरूपी अमृत-वृक्ष बढ़ नहीं सकेगा।
श्रद्धा और विश्वास दोनों भाई हैं, एक के आते ही दूसरा भी आता है।
संदेह का निराकरण करो, विश्वास के सिंहासन पर भक्ति को बैठाओ, हृदय में धर्मराज्य संस्थापित हो।
सत् में निरवच्छिन्न संलग्न रहने की चेष्टा को ही भक्ति कहते हैं।
भक्त ही प्रकृत ज्ञानी है, भक्तिविहीन ज्ञान वाचक ज्ञान मात्र है।
तुम सोअहं ही बोलो और ब्रह्मास्मि ही बोलो, किंतु भक्ति अवलंबन करो, तभी वह भाव तुम्हें अवलंबन करेगा; नहीं तो किसी भी तरह कुछ नहीं होगा।
विश्वास जैसा है, भक्ति उसी तरह आएगी एवं ज्ञान भी होगा तदनुयायी।
पहले निरहंकार होने की चेष्टा करो; बाद में 'सोअहं' कहो, नहीं तो 'सोअहं' तुम्हें और भी अध:पतन में ले जा सकता है।
तुम यदि सत् चिंता में संयुक्त रहने की चेष्टा करो, तुम्हारी चिंता, आचार, व्यवहार इत्यादि उदार एवं सत्य होते रहेंगे और वे सब भक्त के लक्षण हैं।
संकीर्णता के निकट जाने से मन संकीर्ण हो जाता है एवं विस्तृति के निकट जाने से मन विस्तृति लाभ करता है; उसी प्रकार भक्त के निकट जाने से मन उदार होता है और जितनी उदारता है उतनी ही शान्ति।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 1 November 2008

सत्यानुसरण 37

जैसे आदर्श में तुम विश्वास स्थापन करोगे, तुम्हारा स्वभाव भी उसी तरह गठित होगा और तुम्हारा दर्शन भी तद्रूप होगा।
विश्वासी को अनुसरण करो, प्रेम करो, तुम में भी विश्वास आयेगा।
मुझे विश्वास नहीं है--इस भाव के अनुसरण से मनुष्य विश्वासहीन हो जाता है।
विश्वास नहीं हो, ऐसा मनुष्य नहीं। जिसका विश्वास जितना गहरा है, जितना उच्च है, उसका मन उतना उच्च है, जीवन उतना ही गहरा है।
जो सत् में विश्वासी है वह सत् होगा ही और असत् में विश्वासी असत् हो जाता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 31 October 2008

सत्यानुसरण 36

जिसका विश्वास जितना कम है वह उतना undeveloped (अविकसित) है, बुद्धि उतनी कम तीक्ष्ण है।
तुम पंडित हो सकते हो, किंतु यदि अविश्वासी होओ, तब तुम निश्चय ग्रामोफोन के रेकार्ड अथवा भाषावाही बैल की तरह हो।
जिसका विश्वास पक्का नहीं उसे अनुभूति नहीं; और जिसे अनुभूति नहीं, वह फ़िर पंडित कैसा ?
जिसकी अनुभूति जितनी है, उसका दर्शन, ज्ञान भी उतना है और ज्ञान में ही है विश्वास की दृढता।
यदि विश्वास न करो, तुम देख भी नहीं सकते, अनुभव भी नहीं कर सकते। और वैसा देखना एवं अनुभव करना विश्वास को ही पक्का कर देता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 35

भाव में ही है विश्वास की प्रतिष्ठा। युक्ति-तर्क विश्वास नहीं ला सकता। भाव जितना पतला, विश्वास उतना पतला, निष्ठा भी उतनी कम।
विश्वास है बुद्धि की सीमा के बाहर; विश्वास-अनुयायी बुद्धि होती है। बुद्धि में हाँ-ना है, संशय है; विश्वास में हाँ-ना नहीं, संशय भी नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 29 October 2008

सत्यानुसरण 34

जो भाव विरुद्ध भाव द्वारा आहत या अभिभूत नहीं होता, वही है विश्वास।
विश्वास नहीं रहने पर दर्शन कैसे होगा ?
कर्म विश्वास का अनुसरण करता है, जैसा विश्वास, कर्म भी वैसा ही होता है।
गंभीर विश्वास से सब हो सकता है। विश्वास करो,-- सावधान ! अहंकार, अधैर्य और विरक्ति जिसमें न आये-- जो चाहते हो वही होगा !
विश्वास ही विस्तार और चैतन्य ला दे सकता है और अविश्वास जड़त्व, अवसाद, संकीर्णता ले आता है।
विश्वास युक्ति-तर्क के परे है; यदि विश्वास करो, जितने युक्ति-तर्क हैं तुम्हारा समर्थन करेंगे ही।
तुम जिस तरह विश्वास करोगे, युक्ति-तर्क तुम्हारा उसी तरह समर्थन करेंगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 28 October 2008

सत्यानुसरण 33

धर्म को जानने का अर्थ है विषय के मूल कारण को जानना और वही जानना ज्ञान है।
उस मूल के प्रति अनुरक्ति ही है भक्ति; और भक्ति के तारतम्यानुसार ही ज्ञान का भी तारतम्य होता है। जितनी अनुरक्ति से जितना जाना जाता है, भक्ति और ज्ञान भी उतना ही होता है।
तुम विषय में जितना आसक्त होते हो, विषय सम्बन्ध में तुम्हारा ज्ञान भी उतना ही होता है।
जीवन का उद्देश्य है अभाव को एकदम भगा देना और वह केवल कारण को जानने से ही हो सकता है।
अभाव से परिश्रान्त मन ही धर्म या ब्रह्मजिज्ञासा करता है, अन्यथा नहीं करता।
किससे अभाव मिटेगा और किस प्रकार, ऐसी चिंता से ही अंत में ब्रह्मजिज्ञासा आती है।
जिस पर विषय का अस्तित्व है वही है धर्म; जब तक उसे नहीं जाना जाता तब तक विषय की ठीक-ठीक जानकारी नहीं होती।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 26 October 2008

सत्यानुसरण 32

क्षमा करो, किंतु क्षति मत करो।
प्रेम करो, किंतु आसक्त मत होओ।
खूब प्रेम करो, किंतु घुलमिल मत जाओ।
बक-बक करना पूर्णत्व का चिह्न नहीं।
यदि स्वयं संतुष्ट या निर्भावना हुए हो तो दूसरे के लिए चेष्टा करो।
जिस परिमाण में दुःख के कारण से मन संलग्न होकर अभिभूत होगा, उसी परिमाण में हृदय में भय आएगा एवं दुर्बलताग्रस्त हो जाओगे।
यदि रक्षा पाना चाहते, भय एवं दुर्बलता नाम की कोई चीज मत रखो; सत् चिंता एवं सत् कर्म में डूबे रहो।
असत् में आसक्ति से भय, शोक एवं दुःख आते हैं। असत् का परिहार करो, सत् में आस्थावान बनो, त्राण पाओगे।
सत्-चिंता में निमज्जित रहो, सत् कर्म तुम्हारा सहाय होगा एवं तुम्हारा चतुर्दिक सत् होकर सब समय तुम्हारी रक्षा करेगा ही।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 25 October 2008

सत्यानुसरण 31

धनी बनो क्षति नहीं, किंतु दीन एवं दाता बनो।
धनवान यदि अहंकारी होता है, वह दुर्दशा में अवनत होता है।
दीनताहीन अहंकारी धनी प्रायः अविश्वासी होता है, और उसके हृदय में स्वर्ग का द्वार नहीं खुलता।
अहंकारी धनी मलिनता का दास होता है, इसीलिये ज्ञान की उपेक्षा करता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 23 October 2008

सत्यानुसरण 30

पड़े-पड़े मरने से चलकर मरना अच्छा है।
जो बोलने में कम, काम में अधिक है, वही है प्रथम श्रेणी का कर्मी; जो जैसा बोलता है, वैसा ही करता है, वह है मध्यम श्रेणी का कर्मी; जो बोलता अधिक है, करता कम है, वह है तृतीय श्रेणी का कर्मी; और जिसे बोलने में भी आलस्य, करने में भी आलस्य, वही है अधम।
दौड़ कर जाओ, किंतु हाँफ न जाना; और ठोकर खाकर जिसमें गिर न पडो, दृष्टि रखो।
जिस काम में तुम्हें विरक्ति और क्रोध आ रहा है, निश्चय जानो वह व्यर्थ होने को है।
कार्य साधन के समय उससे जो विपदा आएगी, उसके लिए राजी रहो; विरक्त या अधीर न होना, सफलता तुम्हारी दासी होगी।
चेष्टा करो, दुःख न करो, कातर मत होओ, सफलता आएगी ही।
कार्यकुशल का चिह्न दुःख का प्रलाप नहीं।
उत्तेजित मस्तिष्क और वृथा आडम्बरयुक्त चिंता-दोनों ही असिद्धि के लक्षण हैं।
विपदा को धोखा देकर और परास्त कर सफलता-लक्ष्मी लाभ करो; विपदा जिसमें तुम्हें सफलता से वंचित न करे।
सुख अथवा दुःख यदि तुम्हारा गतिरोध नहीं करे तब तुम निश्चय गंतव्य पर पहुँचोगे, संदेह नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 17 October 2008

सत्यानुसरण 29

दान करो, किंतु दीन होकर, बिना प्रत्याशा के।
तुम्हारे अन्तर में दया का द्वार खुल जाये।
दया के हिसाब से किया गया दान अहंकार का ही परिपोषक होता है।
जो कातरभाव से तुम्हारा दान ग्रहण करते हैं, गुरुरूप में वे तुम्हारे हृदय में दयाभाव का उद्वोधन करते हैं; अतएव कृतज्ञ होओ !
जिसे दान दोगे, उसका दुःख अनुभव कर सहानुभूति प्रकाश करो, साहस दो, सांत्वना दो; बाद में साध्यानुसार यत्न के साथ दो; प्रेम के अधिकारी होओगे- दान सिद्ध होगा।
दान करके प्रकाश जितना न करो उतना ही अच्छा-अहंकार से बचोगे।
याचक को लौटाओ नहीं। अर्थ, नहीं तो सहानुभूति, साहस, सांत्वना, मधुर बात, जो भी एक, दो-- हृदय कोमल होगा।
दूसरे की मंगल-कामना ही अपने मंगल की प्रसूति हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 16 October 2008

सत्यानुसरण 28

यदि पाप किये हो, कातर कंठ से उसे प्रकाश करो, शीघ्र ही सांत्वना पाओगे।
सावधान! संकीर्णता या पाप को गोपन न रखो; उत्तरोत्तर वर्द्धित होकर अतिशीघ्र तुम्हें अधःपतन के चरम में ले जायेगा।
अन्तर में जिसे गोपन करोगे वही वृद्धि पायेगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 27

क्षमा करो, किंतु हृदय से; भीतर गरम होकर अपारगतावशतः क्षमाशील होने मत जाओ।
विचार का भार, दण्ड का भार अपने हाथ में लेने मत जाओ; अन्तर सहित परम पिता पर न्यस्त करो, भला होगा।
किसी को भी अन्याय के लिये यदि तुम दण्ड देते हो, निश्चित जानो-परमपिता उस दण्ड को तुम दोनों के बीच तारतम्यानुसार बाँट देंगे।
पिता के लिये, सत्य के लिये दुःख भोग करो; अनन्त शान्ति पाओगे।
तुम सत्य में अवस्थान करो; अन्याय को सहन करने की चेष्टा करो, प्रतिरोध न करो, शीघ्र ही परममंगल के अधिकारी होओगे।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Wednesday, 15 October 2008

सत्यानुसरण 26

दीन होने का अर्थ गन्दा बने रहना नहीं है।
व्याकुलता का अर्थ विज्ञापन नहीं बल्कि हृदय की एकांत उद्दाम आकांक्षा है।
स्वार्थपरता स्वाधीनता नहीं, वरन स्वाधीनता का अंतराय (बाधक) है।
तुम जितने लोगों की सेवा करोगे उतने लोगों के यथासर्वस्व के अधीश्वर बनोगे।
तेज का अर्थ क्रोध नहीं, वरन विनय समन्वित दृढ़ता है।
साधु का अर्थ जादूगर नहीं, वरन त्यागी, प्रेमी है।
भक्त का अर्थ क्या अहमक (बेवकूफ) है? वरन विनीत अहंयुक्त ज्ञानी है।
सहिष्णुता का अर्थ पलायन नहीं, है प्रेम सहित आलिंगन।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 14 October 2008

सत्यानुसरण 25

जिन्हें तुमने चालकरूप में मनोनीत कर लिया है, उनसे अपने हृदय की कोई भी बात गोपन न करो। गोपन करना उनपर अविश्वास करना है, और अविश्वास में ही है अधःपतन। चालक अन्तर्यामी हैं, यदि ठीक-ठीक विश्वास हो तो तुम कुकार्य कर ही नहीं सकोगे। और यदि कर भी लोगे तब निश्चय ही स्वीकार करोगे। और गोपन करने की इच्छा होते ही समझो, तुम्हारे हृदय में दुर्बलता आयी है एवं अविश्वास ने तुम पर आक्रमण किया है--सावधान होओ ! नहीं तो बहुत दूर चले जाओगे।
तुम यदि गोपन करते हो, तुम्हारे सत् चालक भी छिपे रहेंगे और तुम अपने हृदय का भाव व्यक्त करो, उन्मुक्त बनो, वे भी तुम्हारे सम्मुख उन्मुक्त होंगे, यह निश्चित है।
गोपन करने के अभिप्राय से चालक को 'अंतर्यामी हो, सब कुछ ही जान रहे हो', यह कह कर चालाकी करने से स्वयं पतित होंगे, दुर्दशायें धर दबायेंगी।
हृदय-विनिमय प्रेम का एक लक्षण है; और तुम यदि उसी हृदय को गोपन करते हो तो यह निश्चित है कि तुम स्वार्थभावापन्न हो, उनको केवल बातों से प्रेम करते हो।
काम में गोपनता है, किंतु प्रेम में तो दोनों के अन्दर कुछ भी गोपन नहीं रह सकता।
सत्-चालक क्षीण अहंयुक्त होते हैं; वे स्वयं अपनी क्षमता को तुम्हारे सम्मुख किसी भी तरह जाहिर न करेंगे, बल्कि इसीलिये तुम्हारे भावानुयायी तुम्हारा अनुसरण करेंगे-- यही है सत् चालक का स्वभाव। यदि सत्-चालक अवलंबन किए रहो, जो भी करो, भय नहीं, मरोगे नहीं, किंतु कष्ट के लिए राजी रहो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 13 October 2008

सत्यानुसरण 24

तुम गुरु या सत् में चित्त संलग्न करके आत्मोन्नयन में यत्नवान होओ, दूसरे तुम्हारे विषय में क्या बोलते हैं-देखने जाकर आकृष्ट न हो पडो- ऐसा करने से आसक्त हो पड़ोगे, आत्मोन्नयन नहीं होगा।
स्वार्थबुद्धि बहुधा आदर्श पर दोषारोपण करती है, संदेह ला देती है, अविश्वास ला देती है। स्वार्थबुद्धिवश आदर्श में दोष मत देखो, संदेह न करो, अविश्वास न करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा।
मुक्तस्वार्थ होकर आदर्श में दोष देखने पर उसका अनुसरण मत करो-करने से आत्मोन्नयन नहीं होगा!
आदर्श के दोष हैं-मूढ़ अहंकार, स्वार्थ चिंता, अप्रेम। अनुसरणकारी के दोष हैं-संदेह, अविश्वास, स्वार्थबुद्धि।
जो प्रेम के अधिकारी हैं, निःसंदेह चित्त से उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो छल-बल-कौशल से चाहे जैसे भी क्यों न हो सर्वभूतों की मंगल चेष्टा में यत्नवान हैं, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
जो किसी भी प्रकार से किसी को भी दुःख नहीं देते, पर असत् को भी प्रश्रय नहीं देते, उनका ही अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी होगे ही।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 12 October 2008

सत्यानुसरण 23

खबरदार, किसी को हुक्म देकर अथवा नौकर-चाकर द्वारा गुरु की सेवा-सुश्रूषा कराने न जाना--प्रसाद से वंचित मत होना।
माँ अपने हाथों से बच्चों का यत्न करती है, इसीलिये वहाँ पर अश्रद्धा नहीं आती-इसीसे तो इतना प्यार है !
अपने हाथों से गुरुसेवा करने से अंहकार पतला होता है, अभिमान दूर होता है और प्रेम आता है।
गुरु ही है भगवान् का साकार मूर्ति, और वे ही हैं absolute (अखंड)।
गुरु को अपना समझना चाहिए--माँ, बाप, पुत्र इत्यादि घर के लोगों का ख्याल करते समय जिसमें उनका भी चेहरा याद आये।
उनकी भर्त्सना का भय करने की अपेक्षा प्रेम का भय करना ही अच्छा है; मैं यदि अन्याय करूँ तो उनके प्राण में व्यथा लगेगी।
सब समय उन्हें अनुसरण करने की चेष्टा करो; वे जो भी कहें यत्न के साथ उनका पालन कर अभ्यास में चरित्रगत करने की नियत चेष्टा करो; और वही साधना है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 11 October 2008

सत्यानुसरण 22

अन्धा होना दुर्भाग्य की बात है ठीक ही, किंतु यष्टि-च्युत (लाठी खोना) होना और भी दुर्भाग्य है; कारण यष्टि ही आँखों का बहुत-सा काम करती है।
स्कूल जाने से ही किसी को छात्र नहीं कहते, और मंत्र लेने से ही किसी को शिष्य नहीं कहते, हृदय को शिक्षक या गुरु के आदेश पालन के लिए सर्वदा उन्मुक्त रखना चाहिए। अन्तर में स्थिर विश्वास चाहिए। वे जो भी बोल देंगे वही करना होगा, बिना आपत्ति के, बिना हिचकिचाहट के, बल्कि परम आनंद से।
जिस छात्र या शिष्य ने प्राणपण से आनंद सहित गुरु का आदेश पालन किया है वह कभी भी विफल नहीं हुआ।
शिष्य का कर्तव्य है प्राणपण से गुरु के आदेश को कार्य में परिणत करना, गुरु को लक्ष्य करके चलना।
जभी देखोगे, गुरु के आदेश से शिष्य को आनंद हुआ है, मुख प्रफुल्लित हो उठा है, तभी समझोगे कि उसके हृदय में शक्ति आयी है !
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 21

निष्ठा रखो, किंतु जिद्दी मत बनो।
साधु न सजो, साधु होने की चेष्टा करो।
किसी महापुरुष के साथ तुम अपनी तुलना न करो; किंतु सर्वदा उनका अनुसरण करो।
यदि प्रेम रहे तब पराये को "अपना" कहो, किंतु स्वार्थ न रखो।
प्रेम की बात बोलने से पहले प्रेम करो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Friday, 10 October 2008

सत्यानुसरण 20

हृदय दो, कभी भी हटना नहीं पड़ेगा।
निर्भर करो, कभी भी भय नहीं पाओगे।
विश्वास करो, अन्तर के अधिकारी बनोगे।
साहस दो, किंतु शंका जगा देने की चेष्टा करो।
धैर्य धरो, विपद कट जायेगी।
अहंकार न करो, जगत में हीन होकर रहना न पड़ेगा।
किसी के द्वारा दोषी बनाने के पहले ही कातर भाव से अपना दोष स्वीकार करो, मुक्त कलंक होगे, जगत् के स्नेह के पात्र बनोगे।
संयत होओ, किंतु निर्भीक बनो।
सरल बनो, किंतु बेवकूफ न होओ।
विनीत होओ, उसका अर्थ यह नहीं कि दुर्बल-हृदय बनो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 19

एक की चाह करते समय दस की चाह मत कर बैठो, एक का ही जिससे चरम हो वही करो, सब कुछ पाओगे।
जीवन को जिस भाव से बलि दोगे, निश्चय उस प्रकार का जीवन लाभ करोगे।
जो कोई प्रेम के लिए जीवन दान करता है वह प्रेम का जीवन लाभ करता है।
उद्देश्य में अनुप्राणित होओ और प्रशांतचित्त से समस्त सहन करो, तभी तुम्हारा उद्देश्य सफल होगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 7 October 2008

सत्यानुसरण 18

जो ख्याल विवेक का अनुचर है उसी का अनुसरण करो, मंगल के अधिकारी बनोगे।
विस्तार में अस्तित्व खो दो, किंतु बूझो नहीं। विस्तार ही है जीवन, विस्तार ही है प्रेम।
जो कर्म मन का प्रसारण ले आता है वही सुकर्म है और जिससे मन में संस्कार, कट्टरता इत्यादि आते हैं, फलस्वरूप, जिससे मन संकीर्ण होता है वही कुकर्म है।
जिस कर्म को मनुष्य के सामने कहने से मुँह पर कालिमा लगती है, उसे करने मत जाओ। जहाँ गोपनता है, घृणा-लज्जा-भय से वहीं दुर्बलता है, वहीं है पाप।
जो साधना करने से हृदय में प्रेम आता है, वही करो और जिससे क्रूरता, कट्टरता, हिंसा आती है, वह फिलहाल लाभजनक हो तो भी उसके नजदीक मत जाओ।
तुमने यदि ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है जिससे चन्द्र-सूर्य को कक्षच्युत कर सकते हो, पृथ्वी को तोड़कर टुकडा-टुकडा कर सकते हो या सभी को ऐश्वर्यशाली कर दे सकते हो, किंतु यदि हृदय में प्रेम नहीं रहे तो तुम्हारा कुछ हुआ ही नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 4 October 2008

सत्यानुसरण 17

स्पष्टवादी होओ, किंतु मिष्टभाषी बनो।
बोलने में विवेचना करो, किंतु बोलकर विमुख मत होओ।
यदि भूल बोल चुके हो, सावधान होओ, भूल नहीं करो।
सत्य बोलो, किंतु संहार न लाओ।
सत् बात बोलना अच्छा है, किंतु सोचना, अनुभव करना और भी अच्छा है।
सत् बात बोलने की अपेक्षा सत् बात बोलना अच्छा है निश्चय, किंतु बोलने के साथ कार्य करना एवं अनुभव न रहा तो क्या हुआ?-- बेहला, वीणा जिस तरह वादक के अनुग्रह से बजती अच्छी है, किंतु वे स्वयं कुछ अनुभव नहीं कर सकती।
जो अनुभूति की खूब गपें मारता है पर उसके लक्षण प्रकाशित नहीं होते, उसकी सभी गपें कल्पनामात्र या आडम्बर हैं।
जितना डुबोगे उतना ही बेमालूम होओगे।
जैसे अनार पकते ही फट जाता है, तुम्हारे अन्तर में सत् भाव परिपक्व होते ही स्वयं फट जायेगा--तुम्हें मुँह से उसे व्यक्त करना न होगा।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 2 October 2008

सत्यानुसरण 16

हँसो, किंतु विद्रुप में नहीं।
रोओ, किंतु आसक्ति में नहीं, प्यार में, प्रेम में।
बोलो, किंतु आत्मप्रशंसा या ख्याति विस्तार के लिए नहीं।
तुम्हारे चरित्र के किसी भी उदाहरण से यदि किसी का मंगल हो तो उससे उसको वंचित मत रखो।
तुम्हारा सत् स्वभाव कर्म में फूट निकले, किंतु अपनी भाषा में व्यक्त न हो, नजर रखो।
सत् में अपनी आसक्ति संलग्न करो, अज्ञात भाव से सत् बनोगे। तुम अपने भाव से सत्-चिंता में निमग्न होओ, तुम्हारे अनुयायी भाव स्वयं फूट निकलेंगे।
असत्-चिंता जिस प्रकार दृष्टि में, वाक्य में, आचरण में, व्यवहार इत्यादि में व्यक्त हो जाती है, सत्-चिंता भी उसी प्रकार व्यक्त हो जाती है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 15

जितने दिनों तक तुम्हारे शरीर और मन में व्यथा लगती है उतने दिनों तक तुम एक चींटी की भी व्यथा के निराकरण की ओर चेष्टा रखो और ऐसा यदि नहीं करते हो तो तुमसे हीन और कौन है ?
अपने गाल पर थप्पड़ लगने पर यदि कह सको, कौन किसको मारता है, तभी दूसरे के समय बोलो--अच्छा ही है। खबरदार, स्वयं यदि ऐसा नहीं सोच सको तो दूसरे के समय बोलने मत जाओ!
यदि अपने कष्ट के समय संसारी बनते हो तो दूसरे के समय ब्रह्मज्ञानी मत बनो। वरन अपने दुःख के समय ब्रह्मज्ञानी बनो और दूसरे के समय संसारी, ऐसा कृत्रिम-भाव भी अच्छा है।
यदि मनुष्य हो तो अपने दुःख में हँसो और दूसरे के दुःख में रोओ।
अपनी मृत्यु यदि नापसंद करते हो तो कभी भी किसी को 'मरो' न कहो।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Tuesday, 30 September 2008

सत्यानुसरण 14

आगे बढ़ो, किंतु माप कर देखने न जाओ कि कितनी दूर बढ़े हो; ऐसा करने से पुनः पीछे रह जाओगे।
अनुभव करो, किंतु अभिभूत मत हो पडो, अन्यथा चल नहीं पाओगे। यदि अभिभूत होना है तो इश्वरप्रेम में होओ।
यथाशक्ति सेवा करो, किंतु सावधान, सेवा लेने की जिसमें इच्छा न जगे।
अनुरोध करो, किंतु हुक्म देने मत जाओ।
कभी भी निंदा न करो, किंतु असत्य को प्रश्रय मत दो।
धीर बनो, किंतु आलसी, दीर्घसूत्री मत बनो।
क्षिप्र बनो, किंतु अधीर होकर विरक्ति को बुलाकर सब कुछ नष्ट मत कर दो।
वीर बनो, किंतु हिंसक होकर बाघ-भालू जैसा न बन जाओ।
स्थिरप्रतिज्ञ होओ, जिद्दी मत बनो।
तुम स्वयं सहन करो, किंतु जो नहीं कर सकता है उसकी सहायता करो, घृणा मत करो, सहानुभूति दिखलाओ, साहस दो।
स्वयं अपनी प्रशंसा करने में कृपण बनो, किंतु दूसरे के समय दाता बनो।
जिस पर क्रुद्ध हुए हो, पहले उसे आलिंगन करो, अपने घर पर भोजन के लिए निमंत्रण दो, डाली भेजो एवं हृदय खोलकर जब तक बातचीत नहीं करते तब तक अनुताप सहित उसके मंगल के लिए परमपिता से प्रार्थना करो; क्योंकि विद्वेष आते ही क्रमश: तुम संकीर्ण हो जाओगे और संकीर्णता ही पाप है।
यदि कोई तुम पर कभी भी अन्याय करे, और नितांत ही उसका प्रतिशोध लेना हो तो तुम उसके साथ ऐसा व्यवहार करो जिससे वह अनुपप्त हो; ऐसा प्रतिशोध और नहीं है- अनुताप है तुषानल। उसमें दोनों का मंगल है।
बंधुत्व खारिज न करो अन्यथा सजा में संवेदना एवं सांत्वना नहीं पाओगे।
तुम्हारा बन्धु अगर असत भी हो, उसे न त्यागो वरन प्रयोजन होने पर उसका संग बंद करो, किंतु अन्तर में श्रद्धा रखकर विपत्ति-आपत्ति में कायमनोवाक्य से सहायता करो और अनुतप्त होने पर आलिंगन करो।
तुम्हारा बन्धु अगर कुपथ पर जाता है और तुम यदि उसे लौटाने की चेष्टा न करो या त्याग करो तो उसकी सजा तुम्हें भी नहीं छोड़ेगी।
बन्धु की कुत्सा न रटो या किसी भी तरह दूसरे के निकट निंदा न करो; किंतु उसका अर्थ यह नहीं कि उसके निकट उसकी किसी बुराई को प्रश्रय दो।
बन्धु के निकट उद्धत न होओ किंतु प्रेम के साथ अभिमान से उस पर शासन करो।
बन्धु से कुछ प्रत्याशा न रखो किंतु जो पाओ प्रेम सहित ग्रहण करो। कुछ दो तो पाने की आशा न रखो, किंतु कुछ पाने पर देने की चेष्टा करो।

--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Sunday, 28 September 2008

सत्यानुसरण 13

काम करते जाओ, किंतु आबद्ध न होना। यदि विषय के परिवर्तन से तुम्हारे हृदय में परिवर्तन आ रहा है समझ सको और वह परिवर्तन तुम्हारे लिए वांछनीय नहीं है, तो ठीक जानो तुम आबद्ध हुए हो।
किसी प्रकार के संस्कार में ही आबद्ध मत रहो, एकमात्र परमपुरुष के संस्कार को छोड़कर और सभी बंधन हैं।
तुम्हारे दर्शन की, ज्ञान की दूरी जितनी है, अदृष्ट (भाग्य) ठीक उसके ही आगे है; देख नहीं पाते हो, जान नहीं पाते हो, इसलिए अदृष्ट है।
अपने शैतान अहंकारी अहमक "मैं" को निकाल बाहर करो; परमपिता की इच्छा पर तुम चलो, अदृष्ट कुछ भी नहीं कर सकेगा। परमपिता की इच्छा ही है अदृष्ट।
अपनी सभी अवस्थाओं में उनकी मंगल-इच्छा समझने की चेष्टा करो। देखना, कातर नहीं होगे, वरण हृदय में सबलता आयेगी, दुःख में भी आनंद पाओगे।
काम करते जाओ, अदृष्ट सोचकर हताश मत हो जाओ; आलसी मत बनो, जैसा काम करोगे तुम्हारे अदृष्ट वैसे ही बनकर दृष्ट होंगे। सत् कर्मी का कभी भी अकल्याण नहीं होता। चाहे एक दिन पहले या पीछे।
परमपिता की ओर देखकर काम करते जाओ। उनकी इच्छा ही है अदृष्ट; उसे छोड़कर और एक अदृष्ट-फदृष्ट बनाकर बेवकूफ बनकर बैठे मत रहो। बहुत से लोग अदृष्ट में नहीं हैं, यह सोचकर पतवार छोड़कर बैठे रहते हैं, अपिच निर्भरता भी नहीं, अंत में सारा जीवन दुर्दशा में काटते हैं, यह सब बेवकूफी है।
तुम्हारा 'मैंपन' जाते ही अदृष्ट ख़त्म हुआ, दर्शन भी नहीं, अदृष्ट भी नहीं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Saturday, 27 September 2008

सत्यानुसरण 12

तुम दूसरे से जैसा पाने की इच्छा रखते हो, दूसरे को वैसे ही देने की चेष्टा करो--ऐसा समझ कर चलना ही यथेष्ट है--स्वयं ही सभी तुम्हें पसंद करेंगे, प्यार करेंगे।
स्वयं ठीक रहकर सभी को सत् भाव से खुश करने की चेष्टा करो, देखोगे, सभी तुम्हें खुश करने की चेष्टा कर रहे हैं। सावधान, निजत्व खोकर किसी को खुश करने नहीं जाओ अन्यथा तुम्हारी दुर्गति की सीमा नहीं रहेगी।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 11

अपना दोष जानकर भी यदि तुम उसे त्याग नहीं सकते तो किसी भी तरह उसका समर्थन कर दूसरे का सर्वनाश न करो।
तुम यदि सत् बनो, तुम्हारे देखा-देखी हजार-हजार लोग सत् हो जायेंगे। और यदि असत् बनो, तुम्हारी दुर्दशा में संवेदना प्रकाश करने वाला कोई भी नहीं रहेगा; कारण, असत् होकर तुमने अपने चतुर्दिक को असत् बना डाला है।
तुम ठीक-ठीक समझ लो कि तुम अपने, अपने परिवार के, दश एवं देश के वर्त्तमान और भविष्य के लिये उत्तरदायी हो।
नाम-यश की आशा में कोई काम करने जाना ठीक नहीं। किंतु कोई भी काम निःस्वार्थ भाव से करने पर ही कार्य के अनुरूप नाम-यश तुम्हारी सेवा करेंगे ही।
अपने लिये जो भी किया जाय वही है निष्काम। किसी के लिये कुछ नहीं चाहने को ही निष्काम कहते हैं-केवल ऐसी बात नहीं है।
दे दो, अपने लिये कुछ मत चाहो, देखोगे, सभी तुम्हारे अपने होते जा रहे हैं।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Thursday, 25 September 2008

सत्यानुसरण 10

सत्यदर्शी का आश्रय लेकर स्वाधीन भाव से सोचो एवं विनय सहित स्वाधीन मत प्रकाश करो। पुस्तक पढ़कर पुस्तक मत बन जाओ, उसके essence (सार) को मज्जागत करने की चेष्टा करो। Pull the husk to draw the seed (बीज प्राप्त करने के लिए भूसी को अलग करो )।
ऊपर-ऊपर देखकर ही किसी चीज को न छोड़ो या किसी प्रकार का मत प्रकाश न करो। किसी चीज का शेष देखे बिना उसके सम्बन्ध में ज्ञान ही नहीं होता है और बिना जाने तुम उसके विषय में क्या मत प्रकाश करोगे ?
जो कुछ क्यों न करो, उसके अन्दर सत्य देखने की चेष्टा करो। सत्य देखने का अर्थ ही है उसके आदि-अंत को जानना और वही है ज्ञान।
जो तुम नहीं जानते हो, ऐसे विषय में लोगों को उपदेश देने मत जाओ।

Wednesday, 24 September 2008

सत्यानुसरण 9

यदि परीक्षक बनकर अहंकार सहित सदगुरु अथवा साधुगुरु की परीक्षा करने जाओगे तो तुम उनमें अपने को ही देखोगे, ठगे जाओगे।
सदगुरु की परीक्षा करने के लिये उनके निकट संकीर्ण-संस्कारविहीन हो प्रेम का हृदय लेकर, दीन एवं जहाँ तक सम्भव हो निरहंकार होकर जाने से उनकी दया से कोई संतुष्ट हो सकता है।
उन्हें अहं की कसौटी पर कसा नहीं जाता, किंतु वे प्रकृत दीनतारूपी भेड़े के सींग पर खंड-विखंड हो जाते हैं।
हीरा जिस तरह कोयला इत्यादि गन्दी चीजों में रहता है, उत्तम रूप से परिष्कार किए बिना उसकी ज्योति नहीं निकलती, वे भी उसी प्रकार संसार में अति साधारण जीव की तरह रहते हैं, केवल प्रेम के प्रक्षालन से ही उनकी दीप्ति से जगत उद्भासित होता है। प्रेमी ही उन्हें धर सकता है। प्रेमी का संग करो, सत्संग करो, वे स्वयं प्रकट होंगे।
अहंकारी की परीक्षा अहंकारी ही कर सकता है। गलित-अहं को वह कैसे जान सकता है ? उसके लिए एक किंभूतकिमाकार (अदभूत) लगेगा-- जिस तरह बज्रमूर्ख के सामने महापण्डित।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 8

यदि मंगल चाहते हो तो ज्ञानाभिमान छोड़ो, सभी की बातें सुनो और वही करो जो तुम्हारे हृदय के विस्तार में सहायता करे !
ज्ञानाभिमान ज्ञान का जितना अन्तराय यानि बाधक है उतना रिपु नहीं।
यदि शिक्षा देना चाहते हो तो कभी भी शिक्षक बनना मत चाहो। मैं शिक्षक हूँ, यह अंहकार ही किसी को सीखने नहीं देता।
अहं को जितना दूर रखोगे तुम्हारे ज्ञान या दर्शन की दूरी उतनी ही विस्तृत होगी।
अहं जब गल जाता हैं, जीव तभी सर्वगुणसंपन्न निर्गुण हो जाता है।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

सत्यानुसरण 7

जिस पर सब कुछ आधारित है वही है धर्म, और वे ही हैं परम पुरुष।
धर्म कभी अनेक नहीं होता, धर्म एक है और उसका कोई प्रकार नहीं।
मत अनेक हो सकते हैं, यहाँ तक कि जितने मनुष्य हैं उतने मत हो सकते हैं, किंतु इससे धर्म अनेक नहीं हो सकता।
मेरे विचार से हिंदू धर्म, मुसलमान धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म इत्यादि बातें भूल हैं बल्कि वे सभी मत हैं।
किसी भी मत के साथ किसी मत का प्रकृत रूप से कोई विरोध नहीं, भाव की विभिन्नता, प्रकार-भेद हैं--एक का ही नाना प्रकार से एक ही तरह का अनुभव है।
सभी मत ही हैं साधना विस्तार के लिये, पर वे अनेक प्रकार के हो सकते हैं, और जितने विस्तार में जो होता है वही है अनुभूति, ज्ञान। इसीलिये धर्म है अनुभूति पर।
--: श्री श्री ठाकुर, सत्यानुसरण

Monday, 22 September 2008

सत्यानुसरण 6

यह खूब ही सत्य बात है कि मन में जभी दूसरे के दोष देखने की प्रवृति आती है तभी वे दोष तुम्हारे अन्दर आकर घर बना लेते हैं। तभी बिना काल विलम्ब किये उस पाप प्रवृति को तोड़-मरोड़ एवं झाड़-बुहार कर साफ़ कर देने में निस्तार है, नहीं तो सब नष्ट हो जायेगा।
तुम्हारी नजर यदि दूसरे का केवल 'कु' - ही देखे तो तुम कभी भी किसी को प्यार नहीं कर सकते। जो सत् नहीं देख सकता वह कभी भी सत् नहीं होता।
तुम्हारा मन जितना निर्मल होगा, तुम्हारी आँखें उतनी ही निर्मल होगी और जगत् तुम्हारे सम्मुख निर्मल होकर प्रकट होगा।
तुम चाहे जो भी क्यों न देखो, अन्तर सहित सबसे पहले उसकी अच्छाई देखने की चेष्टा करो और इस अभ्यास को तुम मज्जागत कर लो।
तुम्हारी भाषा यदि कुत्सा-कलंक-जडित ही हो, दूसरे की सुख्याति नहीं कर सके, तो वह जिसमें किसी के प्रति कोई भी मतामत प्रकाश न करे। मन ही मन तुम अपने स्वभाव से घृणा करने की चेष्टा करो एवं भविष्य में कुत्सा-नरक त्यागने के लिए दृढप्रतिज्ञ बनो।
परनिंदा करना ही है दूसरे के दोष को बटोर कर स्वयं कलंकित होना; और दूसरे की सुख्याति करने के अभ्यास से अपना स्वभाव अज्ञातभाव से अच्छा हो जाता है।
लेकिन किसी स्वार्थ-बुद्धि से दूसरे की सुख्याति नहीं करनी चाहिये। वह तो खुशामद है। ऐसे क्षेत्र में मन-मुख प्रायः एक नहीं रहते। यह बहुत ही ख़राब है, और इससे अपने स्वाधीन मत-प्रकाश की शक्ति खो जाती है।

Sunday, 21 September 2008

सत्यानुसरण 5

यदि साधना में उन्नति लाभ करना चाहते हो तो कपटता त्यागो।
कपट व्यक्ति दूसरे से सुख्याति की आशा में अपने आप से प्रवंचना करता है; अल्प विश्वास के कारण दूसरे के प्रकृत दान से भी प्रवंचित होता है।
तुम लाख गल्प करो, किंतु प्रकृत उन्नति नहीं होने पर तुम प्रकृत आनंद कभी भी लाभ नहीं कर सकते।
कपटाशय के मुख की बात के साथ अन्तर का भाव विकसित नहीं होता, इसी से आनंद की बात में भी मुख पर निरसता के चिह्न दृष्ट होते हैं; कारण, मुँह खोलने से होता ही क्या है, हृदय में भाव की स्फूर्ति नहीं होती।
अमृतमय जल कपटी के लिए तिक्त लवणमय होता है, तट पर जाकर भी उसकी तृष्णा निवारित नहीं होती।
सरल व्यक्ति उर्द्धदृष्टिसंपन्न चातक के समान होता है। कपटी निम्नदृष्टिसंपन्न गृद्ध के समान। छोटा होओ, किंतु लक्ष्य उच्च हो; बड़ा एवं उच्च होकर निम्नदृष्टिसंपन्न गृद्ध के समान होने से लाभ ही क्या है?
कपटी मत बनो, अपने को न ठगो और दूसरे को भी न ठगो।

Saturday, 20 September 2008

सत्यानुसरण ४

संकोच ही दुःख है और प्रसारण ही है सुख। जिससे हृदय में दुर्बलता आती है, भय आता है--उसमें ही आनंद की कमी है-- और वही है दुःख।
चाह की अप्राप्ति ही है दुःख! कुछ भी न चाहो, सभी अवस्थाओं में राजी रहो, दुःख तुम्हारा क्या करेगा ?
दुःख किसी का प्रकृतिगत नहीं, इच्छा करने से ही उसे भगा दिया जा सकता है।
परमपिता से प्रार्थना करो- 'तुम्हारी इच्छा ही है मंगल, मैं नहीं जानता, कैसे मेरा मंगल होगा। मेरे भीतर तुम्हारी इच्छा ही पूर्ण हो।' और, उसके लिए तुम राजी रहो-आनंद में रहोगे, दुःख तुम्हें स्पर्श न करेगा।
किसी के दुःख का कारण न बनो, कोई तुम्हारे दुःख का कारण न बनेगा।
दुःख भी एक प्रकार का भाव है, सुख भी एक प्रकार का भावहै। अभाव या चाह का भाव ही है दुःख। तुम दुनियाँ के लिए हजार करके भी दुःख को दूर नहीं कर सकते-जबतक तुम हृदय से उस अभाव के भाव को निकाल नहीं लेते। और धर्म ही उसे कर सकता है।

सत्यानुसरण ३

जगत में मनुष्य जो कुछ दुःख पाता है उनमें अधिकांश ही कामिनी-कांचन की आसक्ति से आते हैं, इन दोनों से जितनी दूर हटकर रहा जाय उतना ही मंगल।
भगवान श्रीश्रीरामकृष्णदेव ने सभी को विशेष कर कहा है, कामिनी-कांचन से दूर-दूर-बहुत दूर रहो।
कामिनी से काम हटा देने से ही ये माँ हो पड़ती हैं। विष अमृत हो जाता है। और माँ, माँ ही है, कामिनी नहीं।
माँ शब्द के अंत में 'गी' जोड़कर सोचने से ही सर्वनाश। सावधान ! माँ को मागी सोच न मरो।
प्रत्येक की माँ ही है जगज्जननी ! प्रत्येक नारी ही है अपनी माँ का विभिन्न रूप, इस प्रकार सोचना चाहिए। मातृभाव हृदय में प्रतिष्ठित हुए बिना स्त्रियों को स्पर्श नहीं करना चाहिए--जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा; यहाँ तक की मुखदर्शन तक नहीं करना और भी अच्छा है।
मेरे काम-क्रोधादि नहीं गये, नहीं गये-- कहकर चिल्लाने से वे कभी नहीं जाते। ऐसा कर्म, ऐसी चिंता का अभ्यास कर लेना चाहिए जिसमें काम-क्रोधादि की गंध नहीं रहे- मन जिससे उन सबको भूल जाये।
मन में काम-क्रोधादि का भाव नहीं आने से वे कैसे प्रकाश पायेंगे ? उपाय है-- उच्चतर उदार भाव में निमज्जित रहना।
सृष्टितत्व, गणितविद्या, रसायनशास्त्र इत्यादि की आलोचना से काम-रिपु का दमन होता है।
कामिनी-कांचन सम्बन्धी जिस किसी प्रकार की आलोचना ही उनमें आसक्ति ला दे सकती है। उन सभी आलोचनाओं से जितनी दूर रहा जाये उतना ही अच्छा।

सत्यानुसरण २

अनुताप करो; किंतु स्मरण रखो जैसे पुनः अनुतप्त न होना पड़े !
जभी अपने कुकर्म के लिए तुम अनुतप्त होगे, तभी परमपिता तुम्हें क्षमा करेंगे और क्षमा होने पर ही समझोगे, तुम्हारे हृदय में पवित्र सांत्वना आ रही है और तभी तुम विनीत, शांत और आनंदित होगे ।
जो अनुतप्त होकर भी पुनः उसी प्रकार के दुष्कर्म में रत होता है, समझाना कि वह शीघ्र ही अत्यन्त दुर्गति में पतित होगा ।
सिर्फ़ मौखिक अनुताप तो अनुताप है ही नहीं, बल्कि वह अन्तर में अनुताप आने का और भी बाधक है। प्रकृत अनुताप आने पर उसके सभी लक्षण ही थोड़ा-बहुत प्रकाश पाते हैं।

सत्यानुसरण 1

सर्वप्रथम हमें दुर्बलता के विरुद्ध युद्ध करना होगा। साहसी बनना होगा, वीर बनना होगा। पाप की ज्वलंत प्रतिमूर्ति है वह दुर्बलता। भगाओ, जितना शीघ्र सम्भव हो, रक्तशोषणकारी अवसाद-उत्पादक Vampire को। स्मरण करो तुम साहसी हो, स्मरण करो तुम शक्ति के तनय हो, स्मरण करो तुम परमपिता की संतान हो। पहले साहसी बनो, अकपट बनो, तभी समझा जाएगा, धर्मराज्य में प्रवेश करने का तुम्हारा अधिकार हुआ है।
तनिक-सी दुर्बलता रहने पर भी तुम ठीक-ठीक अकपट नहीं हो सकोगे और जब तक तुम्हारे मन-मुख एक नहीं होते तब तक तुम्हारे अन्दर की मलिनता दूर नहीं होगी।
मन-मुख एक होने पर भीतर मलिनता नहीं जम सकती- गुप्त मैल भाषा के जरिये निकल पड़ते हैं। पाप उसके अन्दर जाकर घर नहीं बना सकता !
हट जाना दुर्बलता नहीं है बल्कि चेष्टा न करना ही है दुर्बलता । कुछ करने के लिए प्राणपण से चेष्टा करने पर भी यदि तुम विफलमनोरथ होते हो तो क्षति नहीं ! तुम छोड़ो नहीं, वह अम्लान चेष्टा ही तुम्हें मुक्ति की ओर ले जायेगी । दुर्बल मन चिरकाल ही संदिग्ध रहता है-वह कभी भी निर्भर नहीं कर सकता । विश्वास खो बैठता है-इसलिए प्रायः रुग्न, कुटिल, इन्द्रियपरवश होता है । उसके लिए सारा जीवन ज्वालामय है । अंत में अशांति में सुख-दुःख डूब जाता है, - क्या सुख है, क्या दुःख, नहीं कह सकता; पूछे जाने पर कहता है, ‘अच्छा हूँ’, पर रहती है अशांति; अवसाद से जीवन क्षय होता रहता है । दुर्बल हृदय में प्रेम-भक्ति का स्थान नहीं। दूसरे की दुर्दशा देख, दूसरे की व्यथा देख, दूसरे की मृत्यु देख अपनी दुर्दशा, व्यथा या मृत्यु की आशंका कर भग्न हो पड़ना, निराश होना या रो कर आकुल होना- ये सभी दुर्बलताएं हैं । जो शक्तिमान हैं, वे चाहे जो भी करें, उनकी नजर रहती है निराकरण की ओर, - जिससे उन सभी अवस्थाओं में कोई विध्वस्त न हो, प्रेम के साथ उनके ही उपाय की चिंता करना -बुद्धदेव को जैसा हुआ था। वही है सबल हृदय का दृष्टान्त । तुम मत कहो कि तुम भीरु हो, मत कहो कि तुम कापुरुष हो, मत कहो कि तुम दुराशय हो ! पिता की और देखो, आवेग सहित बोलो- ‘हे पिता, मैं तुम्हारी संतान हूँ, मुझमें अब जड़ता नहीं, दुर्बलता नहीं, मैं अब कापुरुष नहीं, तुम्हें भूलकर मैं अब नरक की ओर नहीं दौडूंगा और तुम्हारी ज्योति की और पीठ कर ‘अन्धकार-अन्धकार’ कह चीत्कार नहीं करूँगा।’

Friday, 19 September 2008

सत्यानुसरण

"भारत की अवनति तभी से आरम्भ हुई जब से भारतवासियों के लिए अमूर्त भगवान असीम हो उठे -- ऋषियों को छोड़कर ऋषिवाद की उपासना आरम्भ हुई। भारत ! यदि भविष्यत्-कल्याण का आह्वान करना चाहते हो, तो सम्प्रदायगत विरोध को भूल कर जगत के पूर्व-पूर्व गुरुओं के प्रति श्रद्धासंपन्न होओ--और अपने मूर्त एवं जीवंत गुरु वा भगवान् में आसक्त होओ,--और उन्हें ही स्वीकार करो--जो उनसे प्रेम करते हैं। कारण, पूर्ववर्ती को अधिकार करके ही परवर्ती का आविर्भाव होता है !"
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र

सत्यानुसरण

"अर्थ, मान, यश, इत्यादि पाने की आशा में मुझे ठाकुर बनाकर भक्त मत बनो, सावधान होओ-- ठगे जाओगे; तुम्हारा ठाकुरत्व न जागने पर कोई तुम्हारा केन्द्र भी नहीं, ठाकुर भी नहीं-- धोखा देकर धोखे में पड़ोगे।"
--श्री श्री ठाकुर